साक्षात्कार: ओमा शर्मा की आभा बोधिसत्व से बातचीत
आभा : लेखक बनने की प्रक्रिया बताएं ?
ओमा शर्मा: लेखक बनने की प्रक्रिया को रेखांकित करना तो मुश्किल है। मैं अर्थशास्त्र का विद्यार्थी था और जब-तब फुटकर लेख लिखा करता था। दरअसल, मेरे बड़े भाई प्रेमपाल जी पहले से लिख रहे थे। उनके कारण घर पर साहित्यिक पत्र-पत्रिकाएं आती थीं। लेखकों का आना होता रहता था। मुझे उन सब की सोहबत अच्छी लगती थी। कुछ समय बाद मुझे लगा कि जैसा इन पत्रिकाओं में छपता है, वैसा मैं भी लिख सकता हूं। इसी प्रक्रिया में ‘ईदे खाँ’ नाम की कहानी लिखी जो कहीं प्रकाशित नहीं हुई। तब लेखक बनने जैसी कोई आकांक्षा नहीं थी। उसके दो साल बाद ‘शुभारंभ’ लिखी जो कि ‘हंस’ में छपी और बहुप्रसंशित हुई। शिवमूर्ति ने लिखा कि वे इस कहानी को गत 18 साल से लिखना चाह रहे थे। जब ‘भविष्यदृष्टा’ लिखी तब पहली बार मुझे लेखक बनने का अहसास हुआ।
आभा : इस समय के कहानीकारों में खुद को कहां पाते हैं, क्या आप अपने अब तक के लेखन से संतुष्ट हैं?
ओमा शर्मा: दरअसल, मेरी चिंता का विषय नहीं हैं कि मैं समकालीन कथाकारों में खुद को कहां पाता हूं। साहित्य मेरे लिए एक अत्यन्त पवित्र-स्थल है जहां इस तरह के भाव नहीं आने चाहिए। अलबत्ता, मैं सोचता हूं कि मेरी एक छोटी-सी जगह है। मेरे कुछ चुनिन्दा पाठक हैं, जो खास अपेक्षा की दृष्टि से मेरे लेखन को देखते हैं। मैं अपने अब तक के लेखन से संतुष्ट हूं भी और नहीं भी। नहीं हूं, इसलिए कि मात्रात्मक रूप में बहुत कम लिखा है, बहुत सारा जो चाहता रहा हूं जो अभी तक नहीं लिख पाया। अनलिखी कहानियों की लम्बी फेहरिस्त है। कुछ हद तक संतुष्ट हूं इसलिए कि अधिकांश रचनाएं प्रश्न भाव से जन्मी हैं और पूरी मेहनत और एकाग्रता से अधिकांश ने जन्म लिया है। किसी कहानी को लिखते समय मैंने कोई उतावली नहीं की है। हर नई कहानी से पहले आज भी गहरे आत्म-संशय से पीड़ित रहता हूं।
आभा : आपने अब तक कहानियां ही लिखी, उपन्यास क्यों नहीं लिखा?
ओमा शर्मा: उपन्यास लिखना तो चाहता हूं, लेकिन उतना अवकाश शायद मुमकिन नहीं हो पाया है। शायद इसलिए मेरी कई कहानियां लंबी हो गईं। लेकिन, उपन्यास मेरे जेहन में है। शायद देर-सबेर आएगा। अर्थ और तंत्र को लेकर अरसे से एक ऊहापोह को जी रहा हूं। आप कह सकती हैं कि विधा के स्तर पर मुझे कहानी सबसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण लगती हैं। अग्रज कथाकार प्रभु जोशी मुझसे इस बात के लिए खफा रहते हैं कि मैंने अपनी लंबी कहानियों में संभावित उपन्यासों की डीएनसी कर दी है।
आभा : आज के युवा कहानीकारों की कहानियां टुकड़ों-टुकड़ों में तो अच्छी हैं लेकिन गंभीर प्रभाव नहीं छोड़ती, इस बारे में आपका क्या कहना है?
ओमा शर्मा: कई समकालीन युवा लेखकों ने जो उम्मीद जगाई थी वह बिल्कुल पूरी नहीं हुई। वे भयंकर गुटबंदी या आत्मश्लाघा के शिकार हैं। अपनी आलोचना बर्दाश्त करने का लोकतंत्र भी उनके यहां अनुपस्थित है। कोई रचना तभी गंभीर प्रभाव छोड़ती है जब उसमें गंभीरता निवेशित की गई हो या वह साहित्यिक आनंद के स्तर पर रची गई हो। करियरिज्म और चुहल से रची गई रचनाएं जाहिर है, असर नहीं छोड़तीं। दुर्भाग्य से ज्यादातर नाम, मसलन गीत चतुर्वेदी, इसके शिकार हैं। लेकिन, मैं सोचता हूं कि इन्ही सब के बीच कुछ बेहतर लिखने और साहित्य का परचम उठाने की अर्हता हासिल करेंगे।
आभा : आंकड़ों के मुताबिक पिछले दस सालों में एक लाख सतासी हजार किसानों ने आत्महत्याएं की हैं लेकिन कथा लेखन से किसान बेदखल है, क्यों?
ओमा शर्मा: किसान आत्महत्याओं पर केन्द्रित रचनाएं भले नहीं हो लेकिन कथा में गांव तो उपस्थित है ही। मैं आप से समहत हूं कि यह मुद्दा कहानीकारों को सोचने के लिए विवश करता है। साहित्य यदि भविष्य के अतीत का वैकल्पिक और विश्वसनीय इतिहास है तो वह अपने समय के बड़े मसलों से बचकर नहीं रह सकता। लेकिन, ध्यान रखें कि उसके रचने की प्रक्रिया सीधी सपाट या सायास नहीं है। उसकी अपनी स्वायत्तता है। वैसे शिवमूर्ति का उपन्यास ‘आखिरी छलांग’ किसानों की इस दशा को दर्ज करता है। इस समस्या के जितने आयाम हो सकते हैं, उसके मद्देनजर एक उपन्यास नाकाफी है। मैं सोचता हूं कि कहीं ऐसा तो नहीं कि गांव-देहात से हमारे लेखकों का वास्ता सिमट गया है।
आभा : आपने कई साहित्यकारों, संस्कृति कर्मियों के अच्छे साक्षात्कार लिए हैं, साथ ही काफी सारा अनुवाद का काम भी किया है, क्या इन विधाओं को लेखक को लेकर हिन्दी साहित्य गंभीर है ?
ओमा शर्मा: एक फैशन या कारोबार के बावजूद, अनुवाद के प्रति तो साहित्य में पर्याप्त गंभीरता है। केन्द्रीय साहित्य अकादमी के अलावा व्यक्तिगत स्तर पर भी काम हो रहा है जिसके कारण इतर भारतीय भाषाओं का बहुत सारा साहित्य तथा विदेशी भाषाओं का साहित्य हिन्दी में उपलब्ध होने लगा है। साक्षात्कार को लेकर हमारे यहां उतनी गंभीरता इसलिए नहीं रही क्योंकि उसमें शामिल खिलाडि़यों के बीच गैर-बराबरी, बड़े-छोटे और भक्त-देव का भाव बना रहता है। जबकि साक्षात्कार के लिए आप को असुविधाजनक क्षेत्रों में मुठभेड़ करने का हौसला रखना पड़ता है। व्यक्तित्व और रचनाओं से बहुत कुछ खुरचना-कुरेदना पड़ता है। साक्षात्कार बैठे-ठालों का काम नहीं है जो अमूमन इसी मानसिकता से होता-किया जाता रहा है। संयोग से मेरे द्वारा लिए अधिकांश साक्षात्कार खूब चर्चित रहे, जैसे- राजेन्द्र यादव और एम.एफ. हुसैन के साक्षात्कार। साक्षात्कारों के जरिए मेरी मंशा चरित्रों की वैकल्पिक जीवनी पेश करने की होती है।
आभा : आप अपने लेखन के जरिए क्या कहना चाहते हैं?
ओमा शर्मा: लेखन एक कला अनुभव है। जीवन को उदात्त और सार्थक बनाने का मासूम मुगालता। अपने समय को दर्ज करने का कलागत जरिया। अलक्षित कोनों पर रोशनी डालने का प्रयास ताकि जीवन का आनंद बेहतर ढ़ंग से लिया जा सके, उसकी दुश्वारियों से मुकाबिल हुआ जा सके। नहीं, मैं किसी बदलाव लाने की उम्मीद से लेखन में नहीं उतरता हूं। बदलाव के दूसरे अवयव ज्यादा सशक्त होते हैं। अलबत्ता उससे कोई सकारात्मक बदलाव आए तो वह बोनस की तरह खुशी देगा। निश्चय ही सृजनात्मक लेखन बदलाव का एक परोक्ष माध्यम होगा।
आभा : चलते-चलते अपने एक प्रिय रचनाकार का नाम बताइए ?
ओमा शर्मा: जर्मनभाषी ऑस्ट्रियाई स्टीफन स्वाइग मेरे प्रिय लेखक हैं। उन्हें बार-बार पढ़ने से मुझे हर बार कुछ न कुछ हासिल होता रहता है। उनकी तमाम कहानियां और जीवनियां मुझे पसंद हैं। वैसे साहित्यिक उधारी तो पता नहीं कितने उस्तादों की है।
(महत्वपूर्ण कहानीकार ओमा शर्मा हिन्दी साहित्य की कहानी विधा में भी बराबर की दखल रखते हैं। उनके लेख और साक्षात्कार भी कई पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते हैं। उनके रचना कर्म, साहित्य के विविध विषयों और समकालीन लेखन पर नवभारत टाइम्स के लिए आभा बोधिसत्व ने उनसे बातचीत की)
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