“लेखक को सरकार से ज्यादा अपेक्षाएं नहीं करनी चाहिए”… ओमा शर्मा
नित्यानंद गायेन: ओमा जी, आप अपनी नई पुस्तक ‘अंतरयात्राएः वाया वियना’ के बारे में हमें संक्षेप में बताएं।
ओमा शर्मा: यह किताब यात्रा वृत्तांत नहीं है। यात्रा वृत्तांत नहीं है तो क्या है? यह यात्राओं के भीतर की गई यात्राएं हैं। जब हम किसी अनुभव-प्रदेश की यात्रा करते हैं तो अक्सर हम उसके उथले-ऊपरले पक्ष तक ही सिमट कर रह जाते हैं। मैं यह नहीं कह रहा हूं कि यात्रा वृत्तांत नहीं लिखने चाहिए। लेकिन इसको लिखते समय, यात्राओं के बहाने जिन भीतर की चीजों में मैं रमता हूं, उसकी आजमाइश की गई है। इसलिए किताब का नाम ‘अन्तरयात्राएं’ रखा… यात्राओं के भीतर की यात्राएं। इस किताब में जो आठ अध्याय हैं, उनमें सब अलग किस्म की यात्राएं हैं। जैसे एक यात्रा किसी किताब को पढ़ने की है। मैं एक किताब को पढ़ता हूं, जैसे टॉल्सटॉय की स्टीफन स्वाइग द्वारा लिखी जीवनी, उस जीवनी को पढ़ते हुए मेरे भीतर क्या चल रहा है, कैसे वह मेरे कलात्मक संदेहों को छू रही है… इस तरह के निरीक्षण। इसी तरह एक अध्याय एक मित्र के बेटे की कैंसर से जूझते हुई मृत्यु को लेकर है। उसका लड़का कैंसर से मर रहा था… वह त्रासदी मेरे भीतर कैसे उतर रही है… इसी प्रकार की अंतरयात्राएं हैं इस किताब में।
नित्यानंद गायेन: इस किताब में असम के एक पुलिस अधिकारी के बारे में आपने लिखा है जो बहुत मार्मिक है। आप खुद एक उच्च श्रेणी के सरकारी अधिकारी भी हैं, ऐसे में आज की व्यवस्था में आप ऐसी घटनाओं को किस प्रकार देखते हैं?
ओमा शर्मा: देखिये, अगर मैं तरुण दास के साथ खुद को जोड़कर नहीं देख रहा होता तो वह मेरी दिलचस्पी का माध्यम भी नहीं होता। तरुण दास मुझे दूर प्रदेश में तैनात ऐसा व्यक्ति लगा जो उन्नीस-बीस हजार की नौकरी करता है, अपना परिवार चलाता है और अपनी ड्यूटी के प्रति निष्ठा से मुस्तैद हैं। हमारे माहौल में जहां सिनिसज्म बहुत ज्यादा हावी है, तरह-तरह की संकीर्णतायें बढ़ रही हैं, ऐसे में अगर हमें एक व्यक्ति नजर आता है जो अपने कार्य के प्रति निष्ठावान हैं, तमाम दुश्वारियों के बीच बिना शिकवा-शिकायत अपना काम करने में लगा है, तो … ऐसे चरित्रों की उपस्थिति बड़ा संबल देती है। मैं खुद चूँकि सरकार से जुड़ा हुआ हूं, तो संकोच के साथ कहने का मन है कि मैं बहुत सारे ऐसे काम अपने स्तर पर करता रहता हूं जिनसे सम्बद्ध पब्लिक का कष्ट कम हो या संतुष्टि बढ़े, इसलिए मैंने तरुण दास को चुना।
नित्यानंद गायेन: तो कहीं न कहीं आप यह कहना चाहते हैं कि तरुण दास आज के अंधेरे समय में एक उजाले की तरह है!
ओमा शर्मा: निश्चित रूप से। और हमारे यहां यह बहुत दुखद है कि ऐसे लोगों को रेखांकित करने का ज्यादा रिवाज नहीं है जबकि ऐसे एक-दो लोग आपको हर विभाग में मिल जाएंगे। ये बात ठीक है कि उनकी तादाद बहुत कम है, पर ऐसे लोग हैं जिनसे उम्मीद बचती है। हमारा यह तंत्र जिस तरह से चल रहा है वह निश्चित रूप से तरुण दास जैसे लोगों की वजह से चल रहा है।
नित्यानंद गायेन: आपने इस पुस्तक में सिगमंड फ्रायड के बारे में बहुत कुछ लिखा है जिससे हिंदी और भारत के पाठकों को उनके बारे में कुछ नया जानने को मिलता है। जिस तरह शुरुआत में यूरोप में ही फ्रायड को नकारा गया, मतलब उनके काम को नकारा गया और आज उनका वही काम एक ग्रन्थ बन गया। क्या ऐसे किसी लेखक को आपने भारत में पाया है? आज यहां लेखकों में जो ईगो क्लैश है, उसे आप किस तरह से देखते हैं?
ओमा शर्मा: देखिये, फ्रायड के जिस घर का मैंने जिक्र किया है अब वह एक संग्रहालय है। लेकिन मैं मान रहा था कि एक वक्त कभी यहां फ्रायड रहे होंगे। वे वहां रहे भी थे, लेकिन वह बात भी करीब 80-90 साल पुरानी है। वहां जाकर जो भौतिक अवशेष देखे उन्हें देखकर मैं फ्रायड को महसूस तो कर ही रहा था। अलबत्ता, मैंने उनकी कुछ चीजें पढ़ी हुई थी तो ज्यादा आसानी हुई उन्हें समझने में। फ्रायड पेशे से डॉक्टर थे लेकिन अगर आप उनका लेखन देखें तो वह किसी फुलटाइम लेखक से कम नहीं होगा। करीब बीस संग्रहों में उनका लेखन हैं जिसमें अलग-अलग तरह का लेखन भी है। धर्म से लेकर कला और मनोविज्ञान पर। उनकी एक किताब है: सिविलाइजेशन एंड इट्स डिसकंटेंट्स। यह किताब उन्होंने अपनी मृत्यु से कुछ समय पहले, अपनी सांध्य बेला में लिखी थी। उस वक्त तकनीकी आज की तरह ज़ाहिरन इतनी उन्नत नहीं थी मगर फिर भी तकनीकी के आने वाले खतरों को वे उस वक्त भी भांप रहे थे। और वे जान रहे थे कि किस तरह हमारे भीतर लगातार नाखुशी बढ़ रही है। कहने का मतलब यही कि मनोविज्ञान से परे जाकर वे उन बुनियादी इंसानी प्रश्नों पर सोच रहे थे कि जब हमारे भीतर आर्थिक सम्पन्नता आती है, तकनीकी सम्पन्नता आती है, तब हमारी भीतरी खुशी में इजाफ़ाश क्यों नहीं हो रहा है? ऐसे व्यापक और मानवीय सवालों पर वे उस वक्त सोच रहे थे। आज की तारीख में तमाम सुविधा-संपन्न लोगों में एक मानसिक असंतुष्टि क्यों बढ़ रही है जबकि उनके पास एक से बढ़कर एक और बेहतर साधन-सुविधाएं मौजूद हैं? ऐसी सोच-पद्धति से लैस मनोविज्ञानी संत-महात्मा ही हो सकता है जिसके कार्य ही नहीं, दुनियावी अवशेषों को देखने और महसूस करने की मेरे भीतर ललक बनी हुई थी।
अब मैं आपके प्रश्न की तरफ आता हूं। फ्रायड की शुरुआती लड़ाई तो अपनी जाति को लेकर ही थी लेकिन वे उससे जल्द उबर गये थे। यहूदी होकर भी वे यहूदियों की लड़ाई नहीं लड़ रहे थे। मनोविज्ञानी होने के साथ साथ वे एक इंसान थे और व्यापक इंसानी प्रश्नों से जूझ रहे थे। वह क्या है जो हमारे सपनों की बुनियाद में है? और इसके लिए उन्होंने यहूदी होने के कारण जो भी भोगा उसका जिक्र नहीं आने दिया। वैसे विडम्बना देखिए, फ्रायड के फ्रायड होने में उनके यहूदी होने की एक अदृश्य मगर महती भूमिका रही है: प्रथम श्रेणी के चिकित्सक होने के बावजूद उन्हें वियना के किसी अस्पताल मे स्थायी नौकरी नहीं मिल पा रही थी, वे पिता बन चुके थे। मजबूरन उन्हें निजी प्रेक्टिस शुरू करनी पड़ी जो जल्द ही खूब चल निकली। बाकी तो जिसे कहते हैं इतिहास है। तो आप देखेंगे फ्रायड ने उन लोगों के प्रति कोई नकारात्मक बात नहीं की जो उनसे नफरत करते थे या जिनके कारण उनकी जिन्दगी दुश्वार हुई। उस मुश्किल वक्त में यहाँ तक कि वे हिटलर और मुसोलिनी की मानसिक बुनावट पर सोच पा रहे थे कि ऐसा होना मनोवैज्ञानिक ढंग से कितना मुमकिन है।
हमारे यहां जो वर्तमान हालात हैं, इस पर मेरे लिए कुछ कहना मुश्किल है लेकिन यह तय है कि हम एक चुकी हुई या लगभग हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। अब हमारे यहां बड़े प्रश्नों पर चिंतन-मनन नहीं हो रहा है। नई पीढ़ी को मोहलत ही नहीं है और पुरानी पीढ़ी को जरूरत नहीं रह गई है। बहुत जल्दी चीजों को समेट दिया जाता है, असहमतियों के लिए स्पेस नहीं बचा है। हम बहुत जल्द निष्कर्षात्मक हो उठते हैं, हमारी जिज्ञासाएँ सिकुड़ गई हैं। और सबसे डरावनी बात ये कि बोद्धिकता ऐसे ध्रुवीकृत हो चुकी है मानो किसी पाले में रहना उसके अस्तित्व से जुड़ा हो। कोई ताज्जुब नहीं कि हमारे अधिसंख्य बोद्धिक संदिग्ध या अप्रासंगिक हो गए हैं। लेकिन कुछ लोग हैं चाहे संख्या में बहुत कम, जो हमेशा कुछ न कुछ करते रहते हैं। उन्हीं लोगों से उम्मीद बची हुई है। पढ़ने-लिखने और सोचने की जरूरत हमेशा रहती है और रहेगी और इसकी जरूरत ऐसे समाजों को ज्यादा है जो बड़ी विडंबनाओं से गुजरे हैं, जहां पर तरह-तरह के अंतर्विरोध हैं।
नित्यानंद गायेन: आपकी इस बात से कि — फ्रायड कभी निजी हमलों को लेकर व्यक्तिवादी नहीं हुए से– जोड़ते हुए मैंने निजी अनुभव के आधार पर यह पाया है कि हमारे यहां विशेषकर हिंदी में छोटी-मोटी बातों या घटनाओं पर हिंदी के बड़े-बड़े लेखक भी जल्दी ही व्यक्तिवादी या जातिवादी हो जाते हैं। ऐसे में यूरोप के इन लेखकों से हिंदी समाज को क्या सीखने की जरूरत है?
ओमा शर्मा: यूरोप के जिन बड़े लेखकों को हम जानते हैं वे बड़े इसलिए भी हैं कि वे ऐसी क्षुद्रताओं में नहीं पड़े कभी। हमारे यहां भी जो बड़े लेखक हैं या हुए हैं, वे भी इन क्षुद्रताओं में नहीं पड़े हैं। जैसे प्रेमचंद, मुक्तिबोध को या फिर दिनकर और रघुवीर सहाय को आपने कभी ऐसी क्षुद्रताओं में नहीं पाया होगा। यूरोप में भी ऐसे लेखक रहे होंगे और हम उनकी बात नहीं करते। ये लेखक अपनी सोच से बड़े थे और यही कारण रहा होगा कि वे कभी ऐसी बेकार की बातों में नहीं उलझे।
जब तक आप अपनी कुंठाओं से आजाद होकर, सोच के खुले आकाश में नहीं उड़ेंगे तो आप बड़ा नहीं सोच पायेंगे। फ्रायड, टॉल्सटॉय और स्वाइग कि जमात खुली और बड़े सोच की थी इसलिए हम आज भी उन्हें याद करते हैं। आपकी सोच ही आपके लेखन की सीमा तय कर देती है। आप चाहे कविता लिखिए या कहानी या कुछ और, वह आपकी सोच से बड़ी नहीं सकती है। बड़ी सोच हमेशा कुंठाओं से आजाद होती है। आपको लगातार पुनर्विचार करते रहना होता है।
नित्यानंद गायेन: आपने इस किताब को पूरा करने में अपनी पत्नी के योगदान का विशेष उल्लेख किया है। ऐसे में मैं आपसे यह पूछना चाहता हूं कि आपने यूरोप और भारत में जो स्त्रियां लेखन और जन-आन्दोलन से जुड़ी हुई हैं, उनमें क्या अंतर महसूस किया है?
ओमा शर्मा: देखिये, यूरोप एक समय पर भारत जैसी स्थितियां झेल रहा था। सौ वर्ष पहले तक यूरोप में भी स्त्री को परदे में रहना पड़ा है। इसाडोरा डंकन ने जब पहली बार बिना मोजे पहने नृत्य-प्रस्तुति दी थी, तब पूरे यूरोप में उस पर हाय-तौबा मच गई थी कि देखिये कितना अनर्थ हो गया, कितना अश्लील है वगैरा वगैरा। आज वही यूरोप है जहां सब कुछ खुला है। कहने का अर्थ यही कि यूरोप एक लम्बी यात्रा के बाद आज यहां पहुंचा है। यूरोप ने सारे अधिकारों से ऊपर मानवाधिकार को रखा जिसमें सभी अधिकार शामिल हो जाते हैं। उसमें कोई धर्म नहीं आयेगा, कोई जाति नहीं आएगी, उसमें कोई लैंगिक भेदभाव नहीं होगा। तो क्या आएगा? उसमें केवल एक मनुष्य के अधिकार आयेंगे। जहां केवल मनुष्यों के बीच समानता और उसकी सोच होगा। इसीके साथ उन्होंने वहाँ वह सामाजिक और राजनैतिक सुपर-स्ट्रक्चर भी स्थापित किया जो इन अधिकारों को संस्थागत आधार दे सके, उनके हनन पर जवाबदेही सुनिश्चित कर सके।
अपने यहाँ हम राजनैतिक और सामाजिक कुंठाओं-आदतों-कमियों-कमजोरियों से मुक्त नहीं हो पा रहे हैं। हम जिन चीजों से लड़ने चले थे, उन्हीं में सिमट कर रह गये हैं। हम दलित विमर्श कर रहे थे कि… दलितों के हालात सुधरें लेकिन अब वे जातिवाद के बड़े राजनीतिक औजार बनकर रह गए हैं। अब कोई उनको बराबरी के रूप में नहीं, एक सत्ता के रूप में देखता है। ‘मैला आँचल’ में एक प्रसंग आता है जब साम्यवादी टोले में शामिल एक ग्रामीण बातों के बीच अपने साथी से पूछता है: कामरेड, आपके गाँव में सबसे ज्यादे किस जाति के लोग हैं? कितनी सुनसान बारीकी से रेणु ने मर्म पकड़ लिया था। हम रेणु को अप्रासंगिक ही नहीं होने दे रहे हैं।
नित्यानंद गायेन: आपने एक और बात कही थी कि फ्रायड खुद एक मनोवैज्ञानिक तो थे किन्तु वे खुद भी अनेक मानवीय ग्रंथियों से लड़ रहे थे। तो ऐसी दशा भारत के सामाजिक संघर्षों के साथ भी हुई है? मतलब कि यहां हम जिन समस्याओं से लड़ने के लिए निकलते हैं खुद उन्हीं समस्याओं में उलझ कर रह जाते हैं?
ओमा शर्मा: नहीं, इसमें थोड़ा फर्क है। जो डॉक्टर मानवीय ग्रंथियों को उजागर करने में लगा हुआ है, वह खुद बहुत दिनों उन ग्रंथियों से ग्रसित था। लेकिन वो बहुत निजी चीजें थीं। जैसे मान लीजिये कि मैं धूम्रपान के खिलाफ हूं किन्तु कभी-कभी कर लेता हूं तो हो सकता है कि मैं बहुत मजबूरी में ऐसा करता हूं। शायद मैं बहुत खुश हूं या शायद बहुत उदासी में ऐसा करता हूं। किन्तु धूम्रपान के खिलाफ जो मेरी सोच थी, वह मैंने नहीं बदली है। ऐसे में आप यह नहीं कह सकते कि अरे यह तो दोगलापन हो गया। जैसे ईश्वर को लेकर हम अक्सर मान लेते हैं कि अगर गलती से भी आपने कहीं ईश्वर का जिक्र किया तो आप घोर मार्क्सवाद विरोधी हो गये। यह चीजें को देखने का नजरिया है।
नित्यानंद गायेन: मैं बस यह जानना चाहता हूं कि किसी लेखक-दार्शनिक को इस तरह से जानना कितना रोमांचकारी था आपके लिए?
ओमा शर्मा: अरे बिलकुल। आप देखिये फ्रायड के संदर्भ में इस तरह से जानना बहुत रोमांचित था। उम्र के तेतालीसवें साल में उनकी किताब आती है ‘द इंटर्प्रिटेशन्स ऑफ ड्रीम’ (1900)। तब ही उन्होंने अपने तईं जीवन काल का गणित लगाया कि वे इकसठ वर्ष जिएंगे। रेल यात्रा करने से कतराते थे, अपना बक्शा साथ ले जाते थे, उनके पढ़ने-लिखने की मेज दस तरह के टोटकों से घिरी रहती थी। सिगार की लत के तो पता नहीं कितने जग-जाहिर किस्से होंगे। मेरा अभिप्राय: यही है कि थोड़ी सी एक्सेंट्रेसिटी सभी कलाकारों में बारहा आ जाती है। अब वो आनी चाहिए या नहीं, वह कला-सृजन से कैसे सम्बद्ध है, यह एक अलग मसला है। आप क्या बनाने चले थे और क्या बना रहे हैं, वह महत्त्वपूर्ण है। अब जैसे किसी को बिना दूध की चाय पसंद है तो ऐसे में आप उससे यह नहीं कह सकते कि आप तो ग्वालों की जिन्दगी तबाह कर देंगे।
नित्यानंद गायेन: आप जब अपने प्रिय लेखक के घर जा रहे थे, उस रास्ते की चढ़ाई चढ़ रहे थे, उस वक्त आपके भीतर किस तरह की उत्सुकता थी?
ओमा शर्मा: बहुत ही रोमांचकारी और स्वप्निल पल था वह। मैं जैसे अपनी बरसों की मुराद को जी रहा था । वहाँ घूमते-विचरते मैं उस समय में घुस गया था जिसको उस लेखक ने जिया था। उसी बखान में मैंने एक सन्दर्भ वूडी एलेन की फिल्म ‘मिडनाइट इन पैरिस’ का दिया है। इस फिल्म में यही दिखाया है कि वह किरदार यों 1990 के पेरिस में है मगर उन सड़कों-गलियारों में घूमते वक्त वह 1920 में पहुंच गया है जहां उसे कहीं हेमिंगवे बतियाता दिख रहा है तो कहीं रोदाँ। मुझे भी ऐसा लगा कि जैसे मैं उनके समय में पहुंच गया हूं और उसे लगभग देख रहा हूं। यह ठीक है कि जो आपके भीतर की छवि है वह वास्तविक छवि से अलग होती है किन्तु अपनी कल्पना और चाहत की बिना पर फिर भी आप उसे मनमाफिक महसूस कर गुजरते हैं। आपको वे तमाम घटनाएं किसी फिल्म की तरह चलती हुई दिखती हैं।
नित्यानंद गायेन: भारत में ऐसे कौन से जीवनी लेखक हैं जिन्होंने आपको प्रभावित किया है?
ओमा शर्मा: भारत में जीवनी लेखन की परम्परा नहीं है। ‘आवारा मसीहा’ और ‘कलम का सिपाही’ के बाद आपको याद करने के लिए कोशिश करनी पड़ती है की तीसरी या उसके बाद कौन सी जीवनी? ‘मुक्तिबोध की आत्मकथा’ या ‘निराला की साहित्य’ साधना…। बड़े से बड़े हमारे लेखकों पर कोई जीवनीपरक काम नहीं मिलता है। मेरे मन कितना चाहता है कि निर्मल वर्मा के जीवन, ,बुनावट, आत्मसंघर्षों, उनकी बेचैनियों और निजताओं का कोई अध्ययन करे ताकि उस लेखक की विराट और ‘दूसरी दुनिया’ का, जिसे कहें अलग हवाला और खुलासा भी मिल पाए। लेकिन अगर अनुभव के साझा होने के स्तर पर देखें तो लमहीं में प्रेमचंद के घर जब मैं गया था तो वहां मुझे इसी मानसिकता के कारण बहुत जिज्ञासाएं थीं। वहां भी लेखक के जीवन के बारे में दिमाग में एक फिल्म चलने लगी थी। उनके प्रति आपकी जो श्रद्धा, या कहें एप्रिसीएशन है, उसके असर में तरह-तरह की छवि उभरने लगती है आपके भीतर। तब महसूस होता कि काश मैं सच में उन्हें देख पाता। उनके घर के बाहर एक कुंआ दिखा तो फ़ोरन ‘ठाकुर का कुंआ’ याद आयी। लेकिन उस कुंए में कितने कबूतर मरे पड़े थे? वहाँ जो बदबू आ रही थी? ऐसा रियल्टी-चेक आपको वैसी उड़ान ही नहीं भरने दे सकता है जिसकी कशिश आप में मौजूद है। प्रेमचन्द को गुजरे लम्बा अरसा हो गया पर उनकी चीजों को उस तरह से बचा कर नहीं रखा गया जैसे यूरोप में किया जाता है। हमारे यहां म्यूजियम की कोई परम्परा ही नहीं है। आप यूरोप में देखिये कि पत्रों के संग्रहालय मौजूद हैं। हमारे यहां आपको महान लेखकों के पत्र खोजे नहीं मिलेंगे। ऐसा इसलिए भी है कि शासन की ओर से उन्हें सहेजने का कोई उपाय कभी किया नहीं गया लेकिन मुख्यतः तो यह हमारी सामाजिक (गैर)जिम्मेवारी का मामला है । अब तो खैर पत्र लेखन का युग ही समाप्त हो गया।
नित्यानंद गायेन: कथाकार अमरकांत जी ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि रूस में लेखकों के लिए घर और पेंशन की व्यवस्था है। लेकिन भारत में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है। जब मुक्तिबोध मरे, बाबा नागार्जुन मरे, या चाहे त्रिलोचन का देहांत हुआ ऐसे अनेक कलाकार भी यहां से चले गये। इन सबने अपनी कला और रचनाओं से हमें बहुत कुछ दिया। पर सरकार की ओर से इनके लिए कुछ नहीं किया गया। इसके पीछे क्या कारण है?
ओमा शर्मा: देखिये, पहले तो मैं यह कह दूं कि मैं आपकी बात से सहमत हूं। किन्तु जब यूरोप और तमाम देशों के लेखक और कलाकारों को मिलने वाली सुख-सुविधाओं की बात करते हैं तो वो सब सुविधाएं उनके आम नागरिकों को भी हासिल हैं। अमेरिका-यूरोप में जो सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था है वो आम नागरिकों को भी हासिल है। जैसे लेव टॉल्सटॉय। लेव टॉल्सटॉय का जो संग्रहालय है वो उनके जीवनकाल में ही बन गया था। लेव टॉल्सटॉय बहुत अमीर थे। जैसे हमारे यहां रवीन्द्रनाथ टैगौर। तो टैगोर ने अपनी चीजों को अपने जीवनकाल में ही सुरक्षित कर लिया था। हमारे यहां के लेखकों को नागरिक के तौर पर विशेष होने का भरम हो जाता है। दूसरी बात यह कि क्या सरकार आपको किसी तरह से संचालित करती है? हम पूरा समय अपनी तरह से जीते हैं। लिखते हैं अपनी तरह से, सरकार की आलोचना करते हैं। ऐसे में यहां जो अतिरिक्त सुख-सुविधा हम अपने लिए मांग रहे हैं, वह हम आम आदमी के लिए क्यों नहीं मांग रहे हैं? यूरोप में जो कुछ सरकार की ओर से लेखकों को मिलता है वह वहां के आम नागरिकों को भी सोशल सिक्युरिटी के नाम पर प्राप्त है। जो व्यक्ति रोज स्टेशन पर सोता है, जिसके पास कोई घर नहीं है, कोई रोजगार का हिल्ला-हिसाब नहीं है, हम उसके लिए ये सुविधाएं क्यों नहीं मांगते जो हम अपने लिए चाहते हैं? हालांकि मैं यह मानता हूं कि ऐसी व्यवस्था होनी चाहिए। बाज़ लेखकों को सरकार की ओर से अनेक सुख-सुविधाएं मिली भी हैं। कई लेखकों से सरकारी खर्चों पर,बिना कोई जवाबदेही के कितनी यात्राएं की हैं! क्या ऐसी सुविधाएं एक आम नागरिक को कभी मिल सकती हैं? आप लेखक होने के नाते यह चाहेंगे कि हमें तो पासपोर्ट भी सरकार ही बना कर दे। अरे बाबा, उसके लिए पहले आपका पहचान पत्र तो हो। लेखक को सरकार से ज्यादा अपेक्षाएं नहीं करनी चाहिए क्योंकि उसके खामियाजे भी हैं।
बात ठीक ठाक बन गयी है लेखक ,उसकी दुनिया ,सरोकारों से होती हुई हिंदी की मौजूदा स्तिथि तक ,