महात्मा गांधी के साथ प्रगनेशभाई का कोई ताल्लुक है तो यही कि उनके नाम के पीछे भी ‘गांधी’ उपनाम जुड़ा है। गांधी नाम ही पूरी दुनिया में अहिंसा का पर्याय बन गया है। प्रगनेशभाई को महात्माजी के महान विचारों से भी खास वास्ता नहीं है। वे एक साधारण व्यवसायी हैं जो अपना काम किसी दूसरे आम भारतीय की तरह बिना गाये-बजाये करते रहते हैं। मगर गांधीजी की अहिंसा उनकी सांसों में कहीं बसी रहती है जो मुम्बई जैसे महानगर में दिलचस्प ढंग से चौंकाती है क्योंकि इस महानगर में घरेलू, सड़कीय (रोड-रेज़), युवकीय, अवसादगत, राजकीय (पुलिस और गैर-पुलिस) और न जाने कितने प्रकार की हिंसा समाज-विज्ञानियों द्वारा वर्गीकृत होकर कानून-व्यवस्था कायम रखने वालों के यहाँ संख्यात्मक सच्चाई का शाश्वत स्वरूप ले चुकी है।अंडरवर्ल्ड या आतंकी हिंसा का तो खैर शुमार ही अलग है।नीरज ग्रोवर-मारिया सुसाइराज प्रकरण तो शुमार से ही परे चला जाता है।
अपनी 52-53 की उम्र में आज तक प्रगनेशभाई ने कोई कॉकरॉच या मच्छर को भी नहीं मारा होगा। ‘ मृत्यु पर हम मनुष्यों का कोई अधिकार नहीं है,चाहे वह उसकी हो या किसी दूसरे की’ वे कहते पाये जाते हैं। जैन धर्मावलम्बी होने के कारण इस ‘दूसरे’ में समस्त जीवात्मायें आ जाती हैं। ‘मच्छर आपको काटेगा तब आप क्या करेंगे?’ मैं अपनी स्वभावगत मजबूरी के तहत उनसे पूछता हूँ तो वे ‘उसे उड़ा देंगे,भगा देंगे’ जैसा स्पष्ठ मत रखकर निरस्त कर देते हैं ।‘मगर वह उड़कर कहीं न भागे और आपका खून चूसता रहे तब आप क्या करेंगे?’ कुछ कंकड़-मारी के अंदाज़ में मैं जिरह पर आ जाता हूँ।‘फिर भी नहीं मारूंगा’ वे अडिग होकर कहते हैं। मैं उन्हें अपना पक्ष समझाता हूँ कि बाजदफा़ आत्मरक्षा या सुरक्षा के लिये थोड़ी हिंसा क्यों जायज होती है। मसलन, नींद में आराम से सोते आपके बच्चों को मच्छर काटने पर लगे हों तो यह आप ऐसा कैसे होने दे सकते हैं? मुझे लगता है इस जरा सी नजीर की मार्फत मैंने उन्हें निरुत्तर कर दिया है मगर वे समझाइश करते हैं कि उस चीज़ के बारे में सोचा कैसे जा सकता है जो विकल्प में शामिल ही न हो? मच्छरदानी अपनाइए,कोई आयुर्वेदिक इत्र आदि लगाइये…तो उनसे मुक्ति संभव है, वे बडी़ सहजता से समझाते हैं।तभी मुझे लगा कि विकल्प में शामिल होते ही हिंसा क्यों अपने आका की मजबूरी बन जाती है।छोटा बच्चा बात नहीं मानता है तो हम कितनी आसानी से उसे डपट देते हैं या हाथ उठा देते हैं; कोई मातहत गलती करे तो उसे फटकारने से नहीं चूकते हैं मगर उसी सब के सामने बॉस पेश हो तो हम पैतरा बदलकर उसकी हाँ में हाँ मिलाने लग जाते हैं! या कम से कम हिंसक तो नहीं हो उठते हैं।
गए दिनों प्रगनेशभाई के पिता को कई बीमारियों ने एक साथ आ घेरा।डायलैसिस पर उनका इलाज़ शुरू हुआ मगर अस्सी वर्षीय पिता की तबियत बिगड़ती चली गई। दिल के दौरे पड़ने लगे,किडनी जवाब देने लगी, ब्लड-प्रैसर नाकाबू होने लगा। शीघ्र ही डॉक्टरों ने मरीज़ को पूरी तरह लाइफ-सपोर्ट पर कर दिया।अस्पतालों की इस व्यवस्था से जो वाकिफ होंगे, उन्हें खबर होगी कि मरीज के साथ-साथ घरवालों की इस सबके बीच क्या हालत होती है।परिजनों के लिए यह बेहद नाजुक घडी़ होती है तो अधिसंख्य अस्पतालों के लिए व्यवसाय करने का अपेक्षित सुनहरी मौका! दो दिन तक यह सब देखने के बाद प्रगनेशभाई ने डॉक्टरों के हाथ जोड़ लिए…कि वह अपने पिता को बहुत चाहते हैं, उनके लिए अपनी हर चीज़ दाँव पर लगा सकते हैं मगर तकनीकी और उपकरणों के सहारे किसी तरह सांस को चलाए रखते देखना हिंसा से कम नहीं! क्या जीवन को इस तरह मृत्यु की खोह से निकालना—संभव होने के बावजूद—वाजिब है? वह अवश्यंभावी लाख अनचाहा मकाम यदि आन पहुँचा है और सामान्य उपचार और दवा- गोलियों से नहीं टाला ज सकता है तो यूँ ही सही! अपने निकटतम और आत्मीय परिजनों के संदर्भ में इकलौते बेटे द्वारा इस तरह का रवैया क्रांन्तिकारिता से कम नहीं माना जाएगा।अपनों से जुड़े ‘मृत्यु’के जिक्र से ज़्यादातर लोग तमाम सैद्धान्तिक लबादे को एक तरफ फेंक अपने मूल विवेकच्युत पिलपिले आचरण में झूमने-बहकने लगते हैं। बस, उस सारे ताम-झाम को हटा लिया गया जो महज डॉक्टरी अर्थ में अल्पकाल के लिए मृत्यु से एक फाँक भर पैदा किये रख रहा था। दो दिन के भीतर ही वह सम्मानित वृद्ध दुनिया से चले गए।
शोक के दिनों में मैंने प्रगनेशभाई के चेहरे पर एक सुकूनभरी शान्ती देखी जो गांधीजी की या जैन धर्मी अहिंसा का निजी जीवन में अमल किए जाने का प्रतीक थी: अपने पिता को, किसी सौगात के तौर पर एक सहज मृत्यु मुहैया कर देने का एक पुत्र का अंतिम कौटुम्बकीय कर्तव्य! कम ही लोग अपनी सोच और वर्ताब की फाँक को इस पुख्तगी से पाट पाते होंगे।
सोच और व्यवहार को इस तरह एकमएक कर देने के करिश्मे का नाम ही तो महात्मा गांधी था।
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