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स्थिर गांव चलते दृश्‍य

May 08, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

दिल्‍ली, मुंबई, नागपुर और अहमदाबाद जैसे शहरों के बीहड़ से गुजरने के बाद मैं कभी-कभार इसी बात में मरहम तलाश लेता हूं कि मेरी जड़ें ग्रामीण हैं। और गांव भी पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के उस जिले का जिसे प्रथम हरित क्रांति की अगुआई के लिए चुना गया था। नागरीय जीवन के अतिरेकों से तात्‍कालिक निजात पाने के लिए ग्रामीण जड़ें बड़ी सहायक हो उठती हैं। मशहूर अर्थशास्‍त्री और अपने अध्‍यापक प्रो. राजकृष्‍ण के शब्‍दों में कहूं तो गांव की पद्धति-परिपाटी में पिछले बीस वर्षों में हुए परिवर्तनों के बावजूद हिंदू विकास की दर की तरह सब कुछ जस का तस है। गांव के सिवान पर डटी हुई दो-चार हरिजन झोंपड़ियां, बंबा-पोखरों का लगातार अटते जाना, सार्वजनिक झीलों का चौतरफा अतिक्रमण किए जाने के कारण गायब हो जाना। और भी बहुत कुछ। बेकारी तो खैर अपनी जगह है ही। घर-घर पढ़ा-लिखा युवक चप्‍पलें चटका रहा है। गांव-शहर की खाई यों तो सूचना तंत्र ने बहुत कुछ पाट दी है लेकिन नौकरी की खोज में भटक रहा युवक, और उससे भी ज्‍यादा उसके अभिभावक, यह मानकर बैठे होते हैं कि जो भी शहर से गांव आता है उसके लिए नौकरी का पैगाम अवश्‍य लाया होगा। वह पूरे यकीन से मानता है कि उसकी नौकरी न लगने का कारण उसकी (अ) योग्‍यता नहीं, पर्याप्‍त जुगाड़ का अभाव है।

 

आजकल गांव में रामलीला हो रही है। टीवी आ जाने के बावजूद वार्षिक सांस्‍कृतिक मनोरंजन का यह अब भी बेजोड़ माध्‍यम है। मैं थोड़ा चौंकता हूं, इस समय, इस मौसम में? दशहरा-दीवाली के निकलने के बाद? सामने खड़ा राम अवतार समाधान करने लगा है। दशहरे-दीवाली पर छुट्टी नहीं मिलती है न इसीलिए। वह भाग्‍यशाली है कि पुलिस में कांस्‍टेबल बन गया है। रावण, बाली और दशरथ जैसी अहम भूमिकाएं बहुत जीवंत और प्रभावपूर्ण ढंग से निभाता है। विशालकाय घुमावदार मूंछें उगाई हुई हैं। सभी को हतप्रभ कर देता है अपने किरदार से। मगर बिना गम गलत किए गले से एक लफ्ज नहीं फूटता। हास्‍य-व्‍यंग्‍य के लिए अकेला बाबू खां काफी है। एकदम अनपढ़-अनगढ़। गांव और कस्‍बे के बीच  माल का तांगा हांककर पेट पालता है। जंबो माली, मामा मारीच या दरबारी बन बनकर वह किरदारों को अपनी भाषा-सहजता से नए आयाम और ऊर्जा देता है। मरणासन्न मारीच राम को आखिरी इच्छा बता रहा है- ‘कल्ल नैक तांगे पै धान आढ़त पोंचा देना’। मुसलमान होकर हिंदुओं की रामलीला में शिकरत! अपनी जात से दबी-दबी दुत्कार वह खा लेता है। लेकिन उसका कलाकार मुसलमान होने पर भारी पड़ता है। बीच-बीच में दो या पांच रुपए देने वाले दाताओं की घोषणा होती रहती है। पर्दा खींचने वाला लड़का भी रामलीला देखने में अकसर खो जाता है। मरा हुआ बाली उसे तुनककर डांटता है तो वह झटके से रस्सी खींचता है। कहीं कुछ भी बेमुरव्वत नहीं।

सुबह के साढ़े दस बजे हैं। स्कूल में हूं। प्राइमरी के साथ ही मिडिल यानी आठवीं तक की कक्षाएं भी चलती हैं। छोटे बच्चों को अभी प्रार्थना- ‘वह शक्ति हमें दो दयानिधे’- के लिए घेरा जा रहा है। उन्हीं से झाडू लगवाई जा चुकी है। मिडिल के हेडमास्टर साब से मिलता हूं। बड़े दुखी और द्रवित होते हैं। सारे बच्चे मॉनीटरों के हवाले बैठे हैं। एक भी अध्यापक नहीं आया है अभी तक। बारह बजे तक पहुंचते हैं। ‘मैं उनसठ का होकर तीन मील पैदल चलकर आ सकता हूं। वे जवान साइकिल से भी समय से नहीं आ सकते हैं’ वे बता रहे हैं। मुझे लग रहा है, ये अध्यापक दो-चार वर्ष पूर्व नौकरी ‘पाने’ की खोज में उसी भीड़ में खड़े रहे होंगे जिससे मेरा साबका पिछले दो रोज से हो रहा है। मैं उन्हें सुझाता हूं कि वे उनके खिलाफ कोई कार्रवाई क्यों नहीं करते। सब करके देख लिया, कुछ नहीं होता। वे पूरे इत्मीनान से कहते हैं। स्कूल अब पंचायतों के मातहत हो गए हैं इसलिए जब तक गांव के लोग, बच्चों के मां-बाप नहीं चेतते, कुछ नहीं हो सकता। बच्चे को स्कूल भेजकर मां-बाप बड़ा ‘निधरक’ महसूस करते हैं। स्कूल भेजकर भी चिंतित होना पड़ा तो क्या फायदा? स्कूल में कोई अखबार मंगाते है? मैं पूछता हूं। ‘अखबार मंगा लिया तो जो रहा-सहा पढ़ाते हैं अध्यापक वह भी नहीं पढ़ाएंगे’ वे निस्संकोच कहते हैं। मैं सचमुच नहीं समझ-समझा पा रहा कि स्थिति से कैसे निबटा जाए।

मेरे देखते-देखते दो रोज में ही गांव में अजब रंगीनियत पसर गई है—आचार्य स्वामी महाराज अवधेशानंदजी के अगले सप्ताह होने वाले अमृत ज्ञान महोत्सव की सूचना देते पोस्टर, स्टिकर और बैनर्स सब तरफ दृश्य में हाजिर है। ठीक बीस बरस पहले दसवीं में लुढ़कने के बाद पड़ोसी गांव के अवधेश ने पलायन कर लिया था। गेरुआ हो गए। कुछ महीने पूर्व तक कोई सूचना नहीं थी। मगर अब तो वे दिल्ली-मुंबई-हरिद्वार में ही नहीं, लंदन-न्यूयार्क तक प्रवचन करते हैं। किसी स्थानीय चैनल पर हर सुबह प्रसारण भी। एक साल आगे तक के कार्यक्रम तय रहते हैं। बड़े-बड़े उद्योगपति-नेतागण आगे-पीछे घूमते हैं। करोड़ों में खेलते हैं। एमए-बीए करके कोई क्या कमाएगा जो स्वामी जी कमाते हैं। क्षेत्र की खुशकिस्मती है जी! यह बात और है कि एक नौजवान उन्हीं की तर्ज पर गांव से कूच कर गया है जिसका महीनों से कुछ पता नहीं है।

गांव के दोस्त लोग इसरार कर रहे हैं कि मैं भी इस ‘सुनहरी मौके’ का फायदा उठाऊं। प्रवचन कार्यक्रम के संदर्भ में कहीं से सगर्व आवाज आ रही है… अजी तुम्हारे दिल्ली-अहमदाबाद में क्या है अब जो गांव में नहीं है। में निरुतर हूं। पूरा न सही, बहुत बड़ा सच सामने जो खड़ा है।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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