भारत सरकार के विभागों-उपविभागों या उनके तहत कार्य करने वाले उद्यमों की संख्या हजार से तो ऊपर ही है। सभी में राजभाषा विभाग होते हैं जो पूरे साल में किसने कितने पत्र हिंदी में लिखे, कितनी दि्वभाषीय मोहरें बनवाईं जैसे ‘जरूरी’ काम तो करते ही हैं, दो-चार अन्य काम भी निपटाते हैं। एक है रोजना के स्तर पर ‘आज का शब्द’ की पट्टी प्रवेश दीवार पर टांगना और दूसरा, वार्षिक कवायद के बतौर एक विभागीय पत्रिका का प्रकाशन। विभागीय पत्रिका प्रकाशन एक बड़ा उद्यम है। वर्ष भर में एक या दो अंक निकालने होते हैं। खर्च पर लगे अंकुश के बावजूद इस मद के खर्च की सीमा नहीं। हजार प्रतियों का खर्चा कोई चार-पांच लाख भी आए तो चलेगा क्योंकि यह विभाग से ऊपर की चीज है। अच्छे से अच्छा कागज, रंगीन चित्र और चिकना-चुपड़ा आवरण। कंप्यूटर आ जाने से और भी चार चांद लगाए जाते हैं। कुछ चीजों की तरफ नजर अनायास जाती है। जैसे नाम को लें। सभी का नाम प्रागैतिहासिक काल से ‘भारती’ या ‘वीणा’ होता है। आयकर विभाग की पत्रिका है तो आयकर भारती, टेलीफोन विभाग की है तो ‘संचार भारती’। इसके संरक्षक होते हैं विभाग के, उस शहर या कस्बे के सर्वेसर्वा। संपादक मंडल में शामिल होते हैं एक खास स्तर के पदासीन व्यक्ति। उप-संपादक उनके मातहत। साजसज्जा या विशेष सहयोग में मातहतों के मातहत। राजभाषा अधिकारी प्रूफ रीडिंग करते हैं जो उनकी प्रतिभा और दक्षता के ही अनुरूप कार्य है।
पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं तक पहुंचने के लिए आपको अनेक तरह के ‘संदेशों’ और आशीर्वचनों से गुजरना पड़ेगा। पहली संभावना तो मंत्रालय के दिल्ली प्रभारी के हर्षवचनों की होगी। राष्ट्रभाषा से प्रेम और उत्साहवर्धन की प्रतीक इस पत्रिका का प्रकाशन विभागीय रचनात्मकता को नया आयाम देगा। साथ ही एकरसता टूटेगी…। मंत्री महोदय तो इतने संदेश भेजने पड़ते हैं कि इसके लिए उनका एक अलग के स्टाफ होता है। संरक्षण महोदय ‘अत्यंत प्रसन्नता से अभिभूत’ होकर पत्रिका के प्रकाशन की शुभकामनाएं अपने प्रचलित अंग्रेजी नाम का कक्षा दो के छात्र की तरह विखंडन करके हिंदी में हस्ताक्षर करके देते हैं। दफ्तरी मेज-कुर्सी पर फोन करने की मुद्रा का उनका रंगीन चित्र, देशभक्ति का प्रतीक अशोक चक्र फोनों की कतार और अधिकारिक ई-मेल पते के बीच ठिठोली कर रहा है। इसके बाद बारी आएगी संपादकीय की। आह…. भारती का यह पांचवां अंक। पांच वर्षों से लगातार प्रकाशन दरअसल माननीय मुख्य आयुक्त प्रबंधक के प्रोत्साहन और मार्गदर्शन का परिणाम है। (यह बात गौण है कि वह महाशय दो माह पूर्व ही वहां पदासीन हुए हों।)
सबसे पहले मुखियाजी या उनकी मेधावी पत्नी की किशोरावस्था से सुप्तावस्था में पड़ी कविताएं होंगी। उसके बाद किसी वरिष्ठ अफसर का एक लेख होगा जिसमें भारतीय (हिंदू) संस्कृति, योग एवं अध्यात्म के विभिन्न पक्षों और उनकी बारीकियों की हिमायत होगी। बीच में एक आलेख अपेक्षाकृत युवा अफसर का होगा, जिसमें विषम परिस्थितियों के बरक्स सभी प्रकार के लक्ष्यों की प्राप्ति का आत्मश्लाघात्मक वृत्तांत होगा। किसी लिपिक या आशुलिपिक के ‘भारत की प्रमुख समस्याएं और उनका समाधान’ नामक आलेख के होने की भी पूरी संभावना है। पिछले दिनों कोई अफसर सरकारी खर्च पर विदेशी दौरा करके लौटा है तो उसके संस्मरणात्मक लेख के न होने का सवाल ही नहीं है जिसके अंत में राष्ट्र प्रेम की चाशनी लगी होगी। पिछले वर्ष की पत्रिकाओं में कारगिल या पाकिस्तान को लेकर ही नहीं, संविधान और राष्ट्रभाषा की स्वर्णजयंती को लेकर भी नौकरशाहों की सर्जना फूट-फूटकर बही है। राजनीति और नेताओं का प्रत्यक्ष उपहास उड़ाती कुछ कविताएं होंगी। पिछले वर्ष हिंदी पखवाड़े/सप्ताह में आयोजित कहानी, कविता या निबंध प्रतियोगिता में पुरस्कृत रचनाएं होंगी तो गतांक पर विभिन्न क्षेत्रीय राजभाषा अधिकारियों की ‘अहो अंकम’ करती अदला-बदली(बारटर) स्कीम के तहत शामिल प्रतिक्रियाएं। फिलर्स के रूप में दिनकर, मैथिलीशरण गुप्त, विवेकानन्द-दयानंद और गांधी से लेकर वर्तमान राष्ट्रपति- प्रधानमंत्री के कुछेक सूक्त वाक्यों को तो प्रयोग में लिया ही जाता है; एक पंथ दो काज को चरितार्थ करते वे कार्यालयमूलक अनूदित वाक्यांश भी होते हैं जो पत्रिका के वजूद को संभवतः अतिरिक्त सार्थकता प्रदान करते हैं- संशोधित रूप में अनुमोदित, ‘अवलोकनार्थ प्रस्तुत करें’, ‘कृपया रिपोर्ट अविलंब भेजे’, ‘उपरोक्त पत्र की पावती भेजी जाती है’ अथवा ‘उपरोक्त विषय पर मांगी गई सूचना/रिपोर्ट शून्य है’ जैसा ही कुछ। प्रकाशन के बाद अंक दर अंक पत्रिका का शहर-कस्बे के किसी विशिष्ट व्यक्ति या लेखक-कवि से लोकार्पण करवाया जाता है। लोकार्पणकर्ता अपना पीआर बनाते हुए विभाग के साहित्यिक प्रयासों को प्रोत्साहित करते हुए बधाई देते हैं और चलते-चलते अपने टेलीफोन बिल या आयकर रिफंड (जैसा विभाग हो) से संबंधित मामला अपने मेजबानों के सुपुर्द कर देते हैं। पत्रिका की कोई आधी प्रतियों को विभिन्न राज्यों, उद्यमों के मुख्यालयों में भेज दिया जाता है। (ताकि सनद रहे और फिर वे भी तो भेजते हैं) और बाकी को उस कमरेनुमा स्टोर में, जहां टूटी हुई मेजों व कुर्सियों के हत्थे और टाइपराइटर पहले से ही शरणागत हैं।
अब इसके बावजूद सरकार में रहकर सर्जक प्रतिभाएं नहीं उभरे-पनपें तो भारत सरकार को तो दोष नहीं दिया जा सकता है न।
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