तब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री थीं और सरदार बूटा सिंह खेल मंत्री। यानी 1982 के एशियाई खेलों के आसपास का वक्त। रंगीन टीवी के आने की सुगबुगाहट हो चुकी थी और फ्लाईओवरों के लिए सारी दिल्ली की खुदाई हो रही थी। किसी अपरिभाषित उन्माद से सनी आशा यही सोच-सोचकर कुलांचे मारने लगती थी कि सब तरफ बिखरी पड़ी लाल बत्तियों पर रुकने और वक्त बरबाद करने से आइंदा तो निजात मिलेगी। कहीं जेहन में यह भी तोष पनप रहा था कि ‘आगे तीतर पीछे तीतर’ की तर्ज पर नीचे-ट्रैफिक ऊपर-ट्रैफिक देखने का नजारा, जो विदेशी फिल्मों में इतना भव्य लगता था, अपनी दिल्ली में ही गोचर होने लगेगा। बहुत जल्दी ऐसा होने भी लगा। जितने फ्लाईओवर तब बने थे, कम से कम उतने ही उसके बाद और बन गए होंगे। लेकिन दिल्ली यातायात को उन दिनों के बरक्स कोई राहत मिली हो, ऐसा कतई नहीं लगता। हां, एक काश-भाव जरूर उभरता है कि यदि ये सब नहीं हुआ होता तो राष्ट्र की राजधानी की। इस मुक्त प्रश्न में मुझे गांधी के ‘हिंद स्वराज’ में डॉक्टरों की जरूरत को नकारने वाला उत्तर अनायास ही याद आता है। जैसे आपका पेट खराब होता है तो आप फौरन डॉक्टर के पास भागते हैं। डॉक्टर कोई दवा या गोली देता है। पेट ठीक हो जाता है। इस सफलता से उत्साहित होकर आप फिर से खूब डटकर खाने लगते हैं। डॉक्टर की उपलब्धता के कारण आपने अपने शरीर को उन कारकों से बचने-बचाने का प्रयास ही नहीं किया या करने दिया जिनके कारण पेट गड़बड़ होता है। यानी यमुना पर दो-चार पुल और दिल्ली में दर्जन भर फ्लाईओवर्स फिलहाल टांगकर हमने दिल्ली की जनसंख्या को ‘और अधिक’ (या खुदा, इससे भी ‘अधिक’ और क्या होता है!) अराजक, त्रस्त और पीडि़त होने से तो रोक लिया। लेकिन कब तक और किस कीमत पर? क्या यह वाकई समाधान था? दिल्ली से जुड़े पड़ोसी राज्यों को साथ लेकर क्षेत्रीय स्तर की दूरगामी योजना के सहारे एक संतुलित किस्म के विकास की बात तो दूर, दिल्ली के भीतर-भीतर ही दफ्तरों और आवासीय बस्तियों को लेकर स्थानीय योजना बनाई जा सकती थी ताकि लोगों की आवाजाही और तकलीफ न्यूनतम हो सके। साथ ही बहुमूल्य तेल, विदेशी मुद्रा और पर्यावरण की दिशा में दो कदम रखे जा सकते थे। लेकिन दिल्ली का यह नसीब कहां? दिल्ली में आप किसी भी दिशा से रेलवे के जरिए प्रवेश कीजिए तो लगेगा यहां के बाशिंदों को नामर्दी, बवासीर या यौन रोगों के सिवाय कुछ होता ही नहीं है। लेकिन कितना सौभाग्य दिल्ली का कि हर विकार और विकृति का शर्तिया इलाज करने वाले विश्वविख्यात हकीम साहब अभी यहां रहते हैं!
एशियाई खेलों के दौरान ही अधुनातन इंदिरा गांधी इंडोर स्टेडियम बनाया गया था जिसके रखरखाव में लागत से भी ज्यादा पैसा लग गया होगा। मैडलों की मरीचिका और आयोजन की अव्यवस्था के खौफ के कारण पुन: एशियाई खेलों की मेजबानी करने का तो हमने ख्याल तक दिल से निकाल दिया है। करोड़ों की लागत से लेकिन जो सफेद हाथी खड़े किए गए हैं, उनका कुछ तो उपयोग होना चाहिए। जैसे लेखा प्रणाली में आय का अभिप्राय नुकसान भी होता है वैसे ही हमारे कर्ताधर्ताओं की नजर में उपयोग का अभिप्राय दुरुपयोग भी होता है। मसलन, अब इंदिरा गांधी स्टेडियम जैसे सफेद हाथी पर दो-चार सिने कलाकारों के रात्रि-शोज की ही सवारी हो पाती है। उस गोल-मटोल घेरे में अब बैडमिंटन जैसी खेल प्रतियोगिता नहीं कराई जा सकती है जिसके लिए मूलत: उसका निर्माण किया गया था। और इस मामले में दिल्ली अकेली नहीं है। कोई पांच करोड़ की लागत का इंडोर स्टेडियम गुजरात के सूरत जैसे छोटे शहर में भी बनाया जा चुका है। बल्कि उसे तो वातानुकूलित बनाया गया है। दो-चार वर्ष में राज्य स्तर की बैडमिंटन या टेबल टेनिस प्रतियोगिताओं का आयोजन जब सूरत के हवाले रहता होगा तब शायद प्रशासन को इस हाथी से पैसा वसूली का बोध अवश्य होता होगा। वरना तो सफेद हाथी ईख की फसल में घुसकर तहस-नहस मचा ही रहा होता है। अमूमन पूरे वर्ष ही इस इमारत को नवधनाढ्यों के शादी-ब्याह आदि के लिए किराए पर उठाया जाता है। मजे की बात यह है कि उस दृष्टि से भी इसे कोई उपयोग नहीं करना चाहता क्योंकि ऐसे समारोह में परंपरागत रूप से किए जाने वाले गरबा-डांडिया नृत्य के लिए इसका घेरा छोटा पड़ता है। लेकिन तब सरकार दंड-भेद की नीति का कार्यान्वयन करके अपना वजूद दर्शाती है। इसी तरह अहमदाबाद के प्रसिद्ध सरदार पटेल स्टेडियम के शानदार मैदान को, जिसकी दर्शक क्षमता चालीस हजार से ऊपर है, अब क्रिकेट, हॉकी या फुटबाल खेलने के लिए उपयोग में नहीं लिया जाता है। ये खेल तो और कहीं भी खेले जा सकते हैं। इस स्टेडियम का इस्तेमाल अब एकाध हास्य कवि सम्मेलन या स्वनिर्मित सांस्कृतिक एकता को उजागर करती दो-चार नौटंकियों के आयोजन स्थल के रूप में होता है।
कभी-कभार तो मुझे शक होता है कि सफेद हाथियों की बढ़ती हमारी ‘आबादी’ सफेद ही है या उर्दू लेखक सैयद मोहम्मद अशरफ की मशहूर कहानी ‘रोग’ (अंग्रेजी) में तब्दील हो गई है। न भी हुई हो और किसी वक्त हो जाए, हैरानगी नहीं होगी।
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