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विकार का डर

May 08, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

जाने-माने शिक्षाशास्‍त्री कृष्‍ण कुमार की पुस्‍तक ‘विचार का डर’ के कुछ अध्‍याय पढ़े ही थे कि एक अजीब इत्तिफाक हो गया। ऐसा नहीं कि यह मेरे साथ पहली बार हुआ हो। मैं समझ सकता हूं कि जो घटना मेरे साथ जिस रूप में हुई है, वह किसी न किसी रूप में अन्‍य तमाम लोगों के साथ हाल-फिलहाल अवश्‍य हुई होगी।

 

पहले यह बाबा भूतनाथ, माता शेरांवाली या दूसरे इसी किस्‍म के सर्वशक्तिमान प्रकोपी-दयालु उत्‍तर भारतीय देवी-देवता हुआ करते थे। अभी-अभी यह कुर्सी शायद स्‍वर्ग में हुए तख्‍तापलट के कारण, तिरुपति के भगवान वेंकटेश्‍वर स्‍वामी ने हथिया ली है। उन्‍होंने एक हुक्‍मनामे की तरह एक पत्रनुमा हलफनामा जारी किया है जिस पर विचार करने से पहले उसके मजमून को पढ़ना आवश्‍यक है। जगह की कमी के कारण इसकी मुख्‍य शर्तें-हिदायतें सार रूप में ही पेश हैं- (1) भगवान वेंकटेश्‍वर पर अतिश्रद्धा से यकीन रखो। (2) इस पत्र के संग आपकी गोद में बहुत सारा सौभाग्‍य भी आ रहा है जो चार दिन में अवश्‍य आपके पास पहुंच जाएगा। अब यह आपकी मर्जी है कि इसे लेना है या नहीं। (3) बस आप इस पत्र की सत्‍ताइस प्रतियां सत्‍ताइस अलग-अलग लोगों को भेज दें। अविलंब। पत्र से कुछ भी हटाना-मिटाना नहीं है। (4) जैसे ही आप सत्‍ताइस लोगों को एक-से पत्र भेज-बांट देंगे, आपको जबाव मिलेगा। यह कोई मजाक नहीं, सत्‍य है। (5) डॉक्‍टर रमेश को 1968 में यह पत्र मिला था। उन्‍होंने सत्‍ताइस प्रतियां अपने टाइपिस्‍ट से टाइप कराकर बंटवाईं। चार दिन बाद उन्‍हें 45 लाख रुपए का मुनाफा हुआ। (6) एक अफसर को यह पत्र तो मिला मगर वह इसे कहीं रखकर भूल गया। उसकी नौकरी चली गई। (7) ध्‍यान रखिए, आपको इस श्रृंखला को कतई तोड़ना नहीं है। सत्‍ताइस प्रतियां बांटकर आपकी जिंदगी बन जाएगी। आपकी सारी चिंताओं और समस्‍याओं का स्‍वत: निदान हो जाएगा। (8) यह पत्र पूरे विश्‍व में इसी श्रृंखला के तहत नो चक्‍कर लगा चुका है। (9) आप यदि अपना भाग्‍य बदलना चाहते हैं तो इस पत्र को अपने तक ही मत रखिए, आगे बांटिए।

इस पत्र के मजमून के सार को प्रस्‍तुत करने का अभिप्रेत यही है कि आप यह महसूस कर सकें कि आपको भी ऐसे पत्र मिले होंगे। जाहिर है, जिस विचार के डर की बात कृष्‍ण कुमार करते हैं वह पूरी भयावहता से इस प्रकरण में उभर कर आ रहा है। यहां बात किसी की आस्‍था या आस्तिकता को ठेस पहुंचाने की नहीं है। नास्तिकता भी उतनी सकल, सजीव और मुकम्‍मल चीज हो सकती है जितनी आस्तिकता। दोनों के दरमियान पता नहीं कितनी तरह के रंग घुले और भरे रहते हैं–संभवत: अपने-अपने रूप में सारे सच। लेकिन किसी खास देवी-देवता के प्रकोप से बचने और पारिश्रमिक हथियाने के लिए एक कागज जैसी बहुमूल्‍य राष्‍ट्रीय संपदा, समय और सोच को गंवाने का क्‍या औचित्‍य हो सकता है? सोचिए कि जब एक-एक आदमी सत्‍ताइस-सत्‍ताइस प्रतियां बांटने को मजबूर (या उत्‍साही) होगा तो कितने पेड़ों पर गाज गिर रही होगी। कितनी बिजली खर्च हो रही होगी और कितना समय जाया हो रहा होगा। और बात महज संसाधनों के दुरुपयोग की ही नहीं है, सोच और विचार के स्‍तर पर यह पत्र आखिर किन और किस तरह की प्रवृत्तियों की ओर इशारा कर रहा है?

 

क्या विचार के स्‍तर पर आस्‍था रखने वालों को यह खयाल आता है कि एक घिसे-पिटे मजमून का पत्र बांटने मात्र से कोई भगवान क्‍यों और कैसे प्रसन्‍न हो जाएगा? क्‍या इस पत्र में जितनी थपकी है, उतनी ही धमकी नहीं है? छह सौ साल पूर्व जन्‍मे कबीर पूरे भक्तिभाव के बावजूद यह कहने में नहीं हिचके थे कि ‘मसजिद भीतर मुल्‍ला पुकारै, क्‍या साहब तेरा बहिरा है।’ मगर इस समय यानी इक्‍कीसवीं सदी की दहलीज पर जहां विज्ञान और प्रोद्योगिकी ने अपनी उपलब्धि के कारण जीवन पद्धति में आमूल बदलाव ला दिए हैं, एक मसखरी करता पत्र विश्‍व में नौ बार घूम जाए(और फिर भी सिलसिला जारी हो) सिर्फ इसलिए कि एक विज्ञापनप्रेमी भगवान(स्‍वनिर्मित) ऐसा चाहते हैं तो यह इस विकार और विचारहीनता का ही प्रमाण है जो हमारे मन के एक कोने में अन्‍य तमाम उपलब्धियों के साथ निरापद है। हमें स्‍वयं पर विश्‍वास नहीं है कि हमारी उपलब्धियां हमारी ही हैं या किसी भगवान ने प्रसन्‍न होकर हमें भेंट की हैं। ऐसे कितने ही लोगों को मैं जानता हूं जो स्‍कूटर या कार चलाते समय रास्‍ते के तमाम छोटे-बड़े मंदिरों के सामने आदतन नतमस्‍तक हो जाते हैं। एक मंदिर के सामने से यदि दिन में दस बार गुजरना पड़े तो भी उनका रवैया वही रहता है। यहां मेरा मकसद किसी की निजी आस्‍था की खिल्‍ली उड़ाना नहीं, उस विचारहीनता को रेखांकित करना है जो पता नहीं कितने-कितने रूपों में हमारे यहां पसरी पड़ी है। इस विचारहीनता से निपटने के लिए हमें न सिर्फ अपने आलस्‍य को त्‍यागना पड़ेगा बल्कि अनेक किस्‍म के जोखिम भी उठाने पड़ेंगे जिनसे हमारा उपभोक्‍ता मुठभेड़ नहीं करना चाहता और सचमुच हुआ भी यही है। मेरे पास उक्‍त एक ही पत्र नहीं आया; चूहों की बढ़वार की तरह आनन-फानन गुमनाम मित्रों-पड़ोसियों की मेहरबानी से और भी कई प्रतियां आ गई हैं। आखिर तिरुपति के भगवान वेंकटेश्‍वर पूरी दुनिया का दसवां दौरा करने निकल पड़े हैं। भक्‍तों के कल्‍याण हेतु।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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