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वाह कंप्‍यूटर, आह!

May 08, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

संचार क्रांति ही नहीं, आधुनिकता के केंद्र में जो एक औजार अहम हो गया है, वह है कंप्‍यूटर। पिछले दस-बारह से भी ज्‍यादा वर्षों में सबसे अधिक ध्‍यान और अनुसंधान अगर विश्‍व स्‍तर पर कहीं लक्षित होता है तो वह यही है। और इसके नतीजे भी उतने ही भौंचक करने वाले हैं। इसके जरिए अब टीवी देख सकते हैं, गाना सुना जा सकता है और फिल्‍म का आनंद उठाया जा सकता है। और यह सब इसकी वास्‍तविक उपलब्धियों में शुमार नहीं है। असली उपलब्धियां तो कुछ और ही हैं, जैसे समूचे विश्‍व को एक एकल इकाई के रूप में परिवर्तित कर देना। यानी आप न्‍यूयार्क, लंदन और सिडनी में रह रहे किसी परिचित-अपरिचित से बहुत सहजता और सस्‍ते में संप्रेषण कर सकते हैं और अपने विषय से संबंधित किसी भी काम या तथ्‍य की ताजातरीन जानकारी या प्रगति के मालूमात घर बैठे हासिल कर सकते हैं। कंप्‍यूटर की याद्दाश्‍त, गतिशीलता और गुणवत्‍ता बढ़ाने की तरफ दिन दूना रात चौगुना काम हो रहा है। भारत की ही एक कंप्‍यूटर कंपनी के दस रुपए के एक शेयर की बाजार में कीमत कोई चौदह हजार हो रही है। एक से एक मजबूत आधारों वाली सरकारी-अर्धसरकारी कंपनियां जब अच्‍छा-खासा धंधा करने के बाद भी शेयर बाजार में बढ़ती पकड़ और साख एक खौफ पैदा करती है। इसका कारण है कि हम चाहे दुनिया भर में साफ्टवेयर निर्यात कर रहे हों, लेकिन इस क्षेत्र की मूल प्रौद्योगिकी और आधारभूतों की अभी पूंछ भी नहीं पकड़ पाए हैं। रोज के हिसाब से जो यहां परिवर्तन हो रहे हैं, सब पश्चिम से धकेले जा रहे हैं।

 

उपभोक्‍ता को बहुत चालाकी से प्रेरित किया जा रहा है कि उसकी खुशहाली और तरक्‍की की चाबी कंप्‍यूटर में छिपी है। पचास रुपए की कंप्‍यूटर संबंधी एक पत्रिका के साथ तीन सौ रुपए की कंपैक्‍ट डिस्‍क (सीडी) मुफ्त बांटने के पीछे व्‍यापार नीति के आमफहम हथकंडे ही नहीं है, एक सोचा-विचारा दूरगामी मकसद होता है ताकि पहले उपभोक्ता  कंप्‍यूटर का जीर्णोद्धार कराने की कवायद करे, फिर गणित कुछ ऐसा बिठाया जाता है कि उपभोक्‍ता को लगे कि बेहतर हो नया मॉडल ले लिया जाए। नया माल इस क्षेत्र में जितनी द्रुत गति से पुराना और अप्रासंगिक हो रहा है, उतना किसी दूसरे क्षेत्र में नहीं। सात-आठ वर्ष पूर्व एक मित्र ने चालीस हजार का कर्जा लेकर तत्‍कालीन कंप्‍यूटर की मार्फत अपने दफ्तर को आधुनिक करवाया। अभी कर्जे की कुछ किस्‍तें जानी बाकी हैं कि उनसे कहा गया कि उनके जैसे कंप्‍यूटर का मोल एक नितांत खाली डिब्‍बे से ज्‍यादा नहीं है। ‘फिर भी कुछ पैसे तो मिल ही जाएंगे’ उन्‍होंने एक उम्‍मीद से पूछा तो विषयगत सलाहकार का उत्‍तर था कि जो रिक्‍शेवाला उसे उठाने आएगा, उसे भाड़ा भी उन्‍हीं को देना होगा। पहले हर वर्ष नया मॉडल आता था, अब महीनों के हिसाब से परिवर्तन हो रहे हैं।

 

अभी हमारे हाथों को कंप्‍यूटर का तरीके से अभ्‍यास भी नहीं हुआ कि ‘सन् दो हजार’ को लेकर एक अजीब समस्‍या खड़ी हो गयी है। अभी तक तो एक अच्‍छी-खासी रकम उन वायरसों प्रति-वायरस बनाने में ही जाया हो रही थी जिनका काम हमारी प्रतिगामी कंप्‍यूटरी निर्भरता के चलते उनके गर्भ में जमे तथ्‍यों और तरीकों में फफूंद लगाना होता है। आज मॉनटेक सिंह अहलूवालिया पूरे आभिजात्‍य से हमें समझा रहे हैं‍ कि गिनती शुरू हो गई है और भला इसी में है कि हम सन दो हजार का निदान ढूंढ़ लें। राष्‍ट्रीय स्‍तर पर सरकारी और निजी क्षेत्र को मिलाकर जितना पैसा इस तरफ खर्च किया जा रहा है उसके आधे भर से भारत के दो तिहाई सूखाग्रस्‍त गांवों में पीने का पानी मुहैया किया जा सकता है। दिल्‍ली, लखनऊ या पटना जैसे शहरों में बिजली जाने से (और इन या दूसरे अनेक ऐसे शहरों में बिजली तो माया की तरह आती-जाती रहती है) लाखों रुपयों की बिजली इसलिए बरबाद हो जाती है कि इस ‘अचानक मौत’ से कंप्‍यूटर के वायरस जाग उठते हैं और उन्‍हें  शांत करने के लिए दोबारा बिजली आने पर कंप्‍यूटर पहले अपने तईं ही लड़ता रहता है, फिर उपभोग्‍य हो पाता है। पहले आकर्षक योजनाओं के जरिए इंटरनेट सेवाएं अपनाने के लिए प्रेरित किया जाता है। फिर ‘ट्रैफिक’ ज्‍यादा होने के आड़ में मॉडल ही बदलवाना पड़ता है। पूरी दुनिया को एक गांव में समेटने की नीयत में कोई बुराई नहीं है। लेकिन जिस लक्ष्‍य–वर्ग का उपभोक्‍ता हारी-बीमारी में भी अपने निकटतम पड़ोसी का हाल जानना गवारा नहीं करता, उसे कंप्‍यूटर किस गर्त में झोंक रहा है?

 

सुनसान रात में टिमटिमाते तारों तले दूर कहीं एक मजदूर द्वारा अलाव पर बैठै आल्‍हा के गायन का स्‍वर मंद-मंद गायन मुझ तक आ रहा है। और मुझे लग रहा है कि इक्‍कीसवीं तो क्‍या, बयालीसवीं सदी में भी मनुष्‍य होने की कुछ बुनियादी शर्तें और जरूरतें बदलने वाली नहीं है। बावजूद इस कंप्‍यूटर क्रांति के।  ‍हें र त ्‍हीं को देना होगाफ

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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