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लोक और लोकप्रियता की मार

May 08, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

किसी भगवान के रूप में राम का नाम बहुत सायास होकर ही मेरे जेहन में आता है। गांव के पोखरों-चकरोटों पर घूमते-फिरते चाचा ताऊ-नाऊ से लेकर छोटे-छीतर तक सबसे दिन में दसियों बार राम- राम की मार्फत संवाद होता रहता था। खूब लड़ाई-झगड़े होते, मगर राम-राम की अदला-बदली सारी बर्फ पिघला देती। मेरा गांव उस रूप में राममय नहीं है जैसे ब्रज के कृष्णमय गांव हैं।वहां तो कृष्ण- लला की महिमामंडित लीलाओं का देहरी पर इतना मुस्तैद पहरा है कि वक्त कभी अन्दर दस्तक ही नहीं दे पाता है। कृष्ण बड़े सहूलियत पसंद भगवान हैं; जबकि राम बड़े भोले, गरीब और लाचार… किसी खण्डकाव्य की तरह अप्रासंगिक। यहां यह बात उभरकर आती है कि लोकप्रियता किसी कदर लोक की जड़ों को सोखती सुखाती है।

कृष्ण अपने कर्मों से इतने लोकप्रिय हैं कि हरेक का जी बहला देते हैं। उनके लोकप्रिय होने में ही सारी जटिलताएं और कठिनाइयां निहां हैं। आदमी वे सिर्फ गोपियों के साथ होते हैं। वक्त पड़ने पर, कुरुक्षेत्र में वे दूध का दूध और पानी का पानी कर ही देते हैं जबकि लोक जीवन में अपने को लगभग अदृश्य रखकर क्रैडिट लेने की नीयत के बिना ही काम होता है। अकबर-बीरबल के किस्से, जातक- कथाएं, दास्ताने-हातिमताई से लेकर महाभारत जैसी अद्भुत कथा पुस्तक के लेखकों का किसी को पता नहीं है। संभव है कि लेखक एक से अधिक और अलग-अलग समय पर कार्यरत रहे हों। मगर यह तय है कि लोक जीवन की अधिकांश चीजों के अस्तित्व का आधार उनकी आन्तरिक एवं व्यावहारिक महत्त्व या उपयोगिता होती है, न कि उनके सर्जकों की शख्सियत। इस रूप में लोकप्रियता पूंजीवाद का जघन्य और प्रतिनिधि रूपक है जबकि लोक संस्कृति को किसी वादविवाद या अपवाद के सांचे में रखना ही उसके सरोकारों से खिलवाड़ करना है। मेरे गांव में रामलीला का मंचन सबसे बड़ी वार्षिक सांस्कृतिक घटना होती है। पहले यह कार्य पेशेवर मंडलियां करती थीं। हफ्ते दस दिन गांव में ही, उनका डेरा रहता। हनुमान बना महेन्द्र दिन में भी हममें वही कौतूहल और कौतुक जगाता जैसा वह शाम को रावण की अशोक वाटिका का बंटाढार करते वक्त। सीता बना सोमवीर दिन में भी खुले रूप में नहीं घूम सकता था…. उसे देखने, पांव छूने और आशीर्वाद लेने वाली महिलाओं का तांता लगा रहता। तबला और बाजा (हारमोनियम) बजाने वाले तो बिलाहिचक लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के अवतार लगते।

लेकिन पिछले दसेक बरसों में यह सब बन्द हो गया है। नए बन्दोबस्त ने रामलीला मंडलियों की दुकान एकदम बन्द कर दी है। और तो और उन्हें मंचस्थ करने वाले जो चौके-चौंतरे थे, वे भी ढल गए हैं। आपसी अदावतें तो खैर कब नहीं थीं पर हुक्का-पानी पर उतरकर उनका स्वर अब ज्यादा तिक्त हो गया है। संयोगवश, मेरा अपने गांव से संपर्क रहता है। खासतौर से रामलीला के कारण क्योंकि दो सौ पचास रुपए की आजीवन सदस्यता ने गांव को शहर की खिड़की से देखने की सुविधा मुहैया कर दी है। बेहद तंग-सी जगह में, कीचड़ भरी नालियों के बीच, चन्द अति उत्साही गांव वालों का वार्षिक आयोजन है अब यह खेल। हर रोज खेले जाने वाले इस खेल में मगर बच्चों-बूढ़ों और महिलाओं का जो उत्साह शामिल होता है, उसकी तुलना एकता कपूर के किसी भी सास-बहू छाप सीरियल से नहीं की जा सकती। अनगिनत बार देखी सुनी और खेली गई उस कहानी में कुछ भी तो नया या आकस्मिक नहीं है, फिर भी साल दर साल, पुश्त दर पुश्त, टेलीविजन के विकल्प के बावजूद उसके लोक का असर कम नहीं होता है। ठीक है कि गौड़ साहब अपने सुपुत्र के सिवाय किसी अन्य को राम के किरदार में नहीं स्वीकारते हैं क्योंकि आरती की जिम्मेवारी उनके ऊपर होने के कारण किसी दूसरी जात के लड़के के पांव कैसे छू लें! मगर ये छुटपुट बातें हैं इन्हें नजरअन्दाज करना होगा। नहीं करना होगा तो इस बात को कि इद्दा (इदेखां) जैसा अनपढ़, रेहडी़ हांकता, सरसों बेचता किस शाइस्तगी से अपने स्थानीय प्रसंगों के सहारे रामलीला के ‘पाठ’ में अपना दखल बनाए हुए है।

किसी नवजागरण की हवा यहां नहीं आई है। स्कूल की इमारत जर्जर है (लेकिन वो तो बहुत अरसे से है) जिसमें अध्यापक (मास्साब) लोग कभी-कभार हाजिरी लगाने आ जाते हैं। बेरोजगारी शिक्षा के कारण कम, पकती उम्र के कारण ज्यादा। अखबार, कभी शहर जाने पर रिक्तियों के जानने के लिए ज्यादा खरीदा जाता है। फिर यह झूठी सच्ची सोच कि नौकरी के लिए पढा़ई से ज्यादा जरूरी जुगाड़ होती है। उस हुजूम के बीच जाना, चक्रव्यूह में निहत्थे प्रवेश करने जैसा है जहां आप अन्ततः ध्वस्त ही किए जाएंगे।

मेरी चार वर्षीय बेटी दिन भर कार्टून-नेटवर्क देखकर खुश होती है। गांव का लोक उसने ‘लगान’ फिल्म में देख लिया है। प्रश्न करती है कि क्या में कभी ऐसे ही अधनंगा, गाय-भैंसों के आगे-पीछे घूमता फिरता था (जो सच है)? थोडा़ रहम भी खाती है। मगर अनुभव और परवरिश की चाही-अनचाही मगर अनोखी इस पूंजी को उसे न दिए जाने पर मैं सिर्फ अफसोसजदा हूं।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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