बीस-तीस लाख की आबादी वाले शहर अथवा महानगर में यदि आप रह रहे हैं तो सम्भवत: एक घटना आपके शहर में शीघ्र होने जा रही है। किसी प्रमुख राष्ट्रीय दैनिक में यह सूचना देता एक विज्ञापन आएगा कि आम तौर पर हम लोग अपने मस्तिष्क की याद्दाश्त क्षमता का केवल दस फीसदी ही उपयोग करते हैं। क्या आप नहीं चाहते कि आप अपने दिमाग का भरपूर इस्तेमाल करें? आज के दौर में अपने दिमाग का इतना कम उपयोग? लोग तो दूसरों के दिमाग के सहारे सफलता की सीढियां चढ़ने से नहीं चूकते और एक आप हैं कि…इतने कम दानिश!
शहर का एक मशहूर वातानुकूलित हॉल खचाखच भरा है। कुछ लोग तो अंदर भी नहीं जा पाए हैं। पहले माइक पर एक नौजवान हाजरीन से तादात्म्य स्थापित करता अपनी बीती जिंदगी के किस्से सुनाता है कि किस तरह वह एक घर-घुस्सू किस्म का जीव हुआ करता था और आज कैसे वह न सिर्फ एक सफल व्यवसायी है बल्कि, आप देख रहे हैं, मंच जैसे खूंखार दानव के साथ पूरे आत्मविश्वास से पेश आता है। कैसे हुआ उसका वारा-न्यारा? यह हुआ अपने ही देश के देसी डेल कार्नेगी, डॉक्टर ‘फलां’ चंद्रा के मार्गदर्शन से। भाइयो और बहनो, स्वागत कीजिए डॉक्टर… चंद्रा का। और तब सूट-बूट-टाई से सुसज्जित एक नौजवान पहली कतार से उठकर तालियों की गड़गड़ाहट के बीच मंच के केंद्र में आता है और खटाक-खटाक दो-चार चुटकुले किस्म के अनुभवों–जिनमें स्थानीयता की मुकम्मल गंध होती है–को बेताब दर्शकों के बीच इस अदब से बांटता है कि वे सांस रोककर, कान खोलकर और गर्दन हिला-हिलाकर उसके साथ बहने लगते हैं। अभी सफलता की पहली चाबी भी सामने नहीं आई कि वह सोदाहरण बता देता है कि जीवन में अपने लक्ष्य निर्धारित करना कितना अहम होता है। इसके बाद एक और किस्सा हाजिर होता है जिसका संबंध हमारे अंदर के आत्मविश्वास से है। और लीजिए हाजिर है सफलता की तीसरी चाबी यानी खुशमिजाजी और सकारात्मक रुख की शान में दो-चार कसीदे-किस्से। अंतर्संबंधों को रेखांकित करता हुआ किसी अमेरिकी कंपनी का मजेदार वाकया अगली चाबी के रूप में हाजिर किया जाता है। सफलता की पांचवीं चाबी के लिए इस बार दर्शकों को प्रेरित किया जाता है। इधर-उधर से दो-चार आवाजें उभरती हैं जिन्हें एक व्यवस्थित जामा वह मंच संचालक पहना देता है। श्रोता-दर्शक अब और उत्साह से अपने को सही पटरी पर चलता हुआ महसूस कर रहे हैं। जमाने की हवा के मद्देनजर आपको पता होना चाहिए कि सफलता की अगली चाबी होती है ‘नेटवर्क’। हर कोई हर किसी को नहीं जानता या जान सकता इसलिए ‘नेटवर्क’ जरूरी है। जैसे बिल क्लिंटन को आप नहीं जानते तो घबराइए नहीं। उसके किसी सलाहकार, मित्र पड़ोसी या मोनिका लुइंस्की (ठहाका) को पकड़िए। काम हो जाएगा।
सफलता की इतनी सारी चाबियां तो हो गईं, क्या आप और जानना चाहते हैं? सारे दर्शक घोर स्वीकृति में हूक मचा उठते हैं। डॉक्टर साहब निराश नहीं करते। अपने बक्से से रोचक किस्सों से सानकर फिर तीन-चार चाबियां हाजिर करते हैं। और सफलता की आखिरी मगर सबसे अहम चाबी क्या है? वे जेसे प्रश्न से एक चुनौती दर्शकों को पेश कर रहे हैं। ‘इतना सब तो हो गया, फिर भी सबसे अहम चाबी बची है?’ गहरे आत्मसंशय के प्रभाव में खुसर-पुसर होने लगती है। दो-चार संभावित चाबियां उछाली जाती हैं लेकिन निवेदक उन्हें अभी तक गिनाई गई, एक सहायक द्वारा सामने टांगी गई, किसी एक चाबी का ही रूप मानकर खारिज करते जाते हैं। पस्त दर्शकों की रुकी सांस को कुछ क्षण अपने ही प्रश्न की अनुत्तरित टेब से धकेलने के बाद वे रहस्योद्घाटन करते हैं- ये चाबी है…स्मरणशक्ति। दर्शक हैरान हैं। प्रभावित भी। कमाल है, इतनी अहम बात उन्हें क्यों नहीं सूझी? (गौरतलब है कि इन चाबियों में सच्चाई, ईमानदारी, नैतिकता या सदाशयता दूर-दूर तक शामिल नहीं है।)
फिर वे अपनी स्मरणशक्ति का जीवंत नमूना पेश करते हैं| तीस वस्तुओं के क्रमवार नाम दर्शकों द्वारा ही सुझाए जाते हैं| फिर एक मिनट का ध्यान और लीजिए, मानवीय संगणक तैयार| कोई भूल नहीं। तालियां। यह कोई मुश्किल काम नहीं है, वे कहते हैं। इसे आप में से कोई कर सकता है। बस थोड़ी ट्रेनिंग की जरूरत है। दर्शकों में से ही किसी को बुलाकर पांच मिनट की ट्रेनिंग दी जाती है और वह भी ‘मीर’ बनता नजर आता है। फिर से तालियां। अब सफलता की अभी तक टांगी बाकी कुंजियां तो खाली टंगी हैं और केंद्र में आती है स्मरणशक्ति बढ़ाने के प्रशिक्षण की बात। इस प्रशिक्षण की विश्वव्यापी मांग हो रही है। हांगकांग, कुवैत, बहरीन, दुबई, मुंबई, दिल्ली, पूना, अहमदाबाद समेत और भी अनेक जगह। पांच दिन के प्रशिक्षण में आपकी स्मरणशक्ति का कायाकल्प। आप बारह वर्ष के बच्चे हों या बहत्तर वर्ष के वृद्ध, स्त्री हों या पुरुष, नौकरीपेशा या व्यवसायी, छात्र या पेशेवर, सभी को अचूक फायदा। मात्र पांच हजार में। बहुत फायदे का सौदा है। जिन्होंने यह लिया है उनके मुंह से ही सुनिए। पांच-छह स्थानीय लोग अपने परिचय और वक्तव्य के साथ निवेदक का समर्थन करते हैं। फिर वे बताते हैं कि विश्वव्यापी व्यस्तता के चलते हो सकता है इस शहर में उनका फिर न आना हो… इसलिए यह एक तरह से आखिरी मौका है। और वाकई लोग टूट पड़ते हैं।
समाज के विकास के वर्तमान मोड़ पर क्या कोई ऐसा होगा जिसने नाकामियों की फंकी न मारी है या जिसे अपेक्षा से कम सफलताएं न मिली हों? इस मानसिकता के बरक्स कौन नहीं चाहता अपने को संवारना-निखारना? लेकिन किसी वैज्ञानिक अवलोकन के तहत समाधान ढूंढ़ने की बजाए बहुत लोग हैं जो एक घुट्टी पीकर अपनी कमियों से निजात पाना चाहते हैं। समय कम है ही। और यहीं डॉ. चंद्रा का कलाकार अपना खेल दिखाता है।
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