मेरे घर के पते में गुजरात उच्च न्यायालय का नाम आता है। सामने होने के कारण। हालांकि वह इमारत जो मेरे घर के सामने है उसमें फिलहाल उच्च न्यायालय कार्य नहीं करता है क्योंकि उसका तबादला स्थाई रूप से शहर के बाहरी हिस्से में बनी एक आधुनिक और विशाल बिल्डिंग में हो गया है। इस स्थानांतरण का मुख्य कारण इस इमारत का भूगोल ही था जो शहर के बीचोंबीच होने के कारण यातायात संबंधी अनेक दिक्कतें पेश करता था। लेकिन जैसे दिल्ली के उस क्षेत्र को जिसका नामकरण राजीव चौक कर दिया गया था, अब भी कनॉट प्लेस से नाम से जाना जाता है, ठीक वैसे ही शहर के इस भाग को वहां से नदारद हुए हाई कोर्ट के नाम से ही जाना जाता है।
यहां यह तथ्य रेखांकित करने की दरकार नहीं है कि हमारी न्यायिक व्यवस्था की क्या हालत है। किस हाई कोर्ट में कितने दीवानी या दूसरे मुकदमे सुनवाई के लिए कितने वर्षों से कराह रहे हैं, इसकी तफसील में जाएं तो बहुत अवसादग्रस्त तस्वीर उभरती है। आज की तारीख में कोई 25378 कानून कार्यरत हैं जिनमें से कोई 15000 में आजादी के बाद से कोई सुधार या छेड़छाड़ नहीं की गई है। एक तरफ राजनैतिक स्तर पर न्यायपालिका की सक्रियता बढ़ी है तो वहीं अवांछित मगर सभ्य किस्म के तबके को न्यायपालिका एक मुकम्मल और विश्वसनीय आश्रय के रूप में सदैव उपलब्ध मिलती है। नतीजतन एक तरफ जहां अपराधी सजा से लगातार बचता-बचाता रहता है वहीं न्याय की गुहार करते बेगुनाह और शोषित लोग खौफनाक ढंग से मानसिक और आर्थिक मौत की बलि चढ़ चाते हैं। यह स्थिति किसी एक हाई कोर्ट की नहीं, निरपवाद सभी की है। जिला या क्षेत्रीय स्तर के न्यायालयों का तो कहना ही क्या।
मेरे अनुभव में न्यायालयों में सुनवाई कम, टालमटोल जिसे अंग्रेजी में एडजर्नमेंट कहा जाता है, ज्यादा होती है। ‘तारीखें’ पड़ती हैं। इसे यदि फिल्मी न समझा जाए तो हकीकत है कि हर तारीख के बाद सिर्फ दूसरी तारीख बदलती है या अदालत। उधर न्याय पाने की दिलासा में पीड़ित-भोक्ता प्राथमिकता में जरूरी दस अन्य कार्यों को छोड़कर, वकील साब और न्यायालय को खफा न करने की खातिर तारीख दर तारीख उस इमारत से किसी दैवीय करिश्मे के घटित होने के उम्मीद में गैरहाजिर नहीं हो पाता है। काले कोट वालों के खिलखिलाते चेहरों और चहल-पहल के बीच उस आदमी की पीड़ा और त्रासदी को बड़ी आसानी से लक्ष्य किया जा सकता है जिसे अदालत में खड़े या बैठने लायक जगह मुहैया न होने के कारण अपना समय काटने और भूख-प्यास की तामील करने के लिए उन लारी-खोमचे वालों की दुनिया से दो-चार होना पड़ता है जो अमूमन इन कोर्ट-कचहरियों के सामने खेत की मेंड़ की तरह सटे रहते हैं। उनकी सामाजिक उपस्थिति कई अर्थों में हमारी व्यवस्था पर भी एक करारा व्यंग्य-वक्तव्य होती है। एक खोमचे पर पान-बीड़ी है तो दूसरे पर इडली-डोसा। एक भाई अंडा-आमलेट का जखीरा लेकर बैठा है तो एक मूंगफली-सींगदाने का। एक ब्रेड-पकौड़े तल रहा है तो उसके बाजू वाला सेंडविच बनाने में मशगूल है। एकाध फलफ्रूट वाला है तो एकाध चाटवाला। न्याय की मरीचिका में भटकते अपने बंधु-बिरादरों को यह दुनिया जैसे बहुत सस्ते में ही कम-से-कम तात्कालिक निजात दिलाने में पुरअसर है। जब भी मैं वहां से गुजरता हूं, किसी को खाली या लड़ते-झगड़ते नहीं देखता। जाहिर है, अधिकतर लोग जो खोमचे वालों के इर्द-गिर्द होते हैं, निम्न या निम्न मध्यवर्गीय ही होते हैं जो तारीख दर तारीख न्याय की जगजाहिर अनुपस्थिति में, ‘शहर’ में जुबान का जायका बदलकर कुछ हद तक तृप्ति महसूस करते हैं।
बाहर पसरी हुई इस दुनिया का इतने दिनों से साक्षी होने की हैसियत से यह कह सकता हूं कि अर्थशास्त्र के ‘पूर्ण प्रतियोगिता’ के सिद्धांत को फलीभूत होते देखा है मैंने तो इसी जगह पर, जहां लागत और कीमत के बीज अंतर इतना मामूली होता है कि शोषण या अधिशेष की गुंजाइश ही नहीं बचती है। कहां सुबह तैयार करके थर्मस में उल्टाकर दो-तीन घंटे बंटती कैंटीनी चाय का स्वाद और कहां हर बार अदरक इलाइची डालकर, धधकते स्टोव पर ही घुमा-घुमाकर, दो-तीन उबाल लगाकर चार गर्म बूंदों को हथेली पर चखने (परीक्षण करने) की बाद छनी महकती चाय का स्वाद! और फिर भी महंगी नहीं। आप कह सकते हैं कि आमलेट बनाने में तेल ज्यादा डाला गया (जो हो सकता है ड्रॉप्सी वाला हो) या ज्यादा खुलेपन के माहौल में खाद्य सामग्री यों ही पड़ी रहने के कारण हानिकारक हो। लेकिन जिन लोगों की जिंदगी न्यायपालिका की मजबूरियों (क्यों बशीर बद्र साहब, इस पर भी आपका कोई शेर है?) के कारण हराम और नीरस हो रही हो, उनके लिए यहीं ‘खोमची स्वाद’ कम महत्तवपूर्ण विचलन नहीं होता होगा।
पिछले दिनों गुजरात उच्च न्यायालय के शिफ्ट होने के कारण यह स्वाद, यह महक और चहल-पहल न्यायपालिका के अच्छे रहबर की तरह मेरे सामने से नदारद हो गए। बड़े दिनों तक वह इमारत और उसकी ‘मेंड़’ बहुत वीरान और उजाड़-उजाड़ रहे, गोया तारीख में कभी दर्ज ही न रहे हों। मगर अभी दो-चार दिन पूर्व से ही एक पारिवारिक कोर्ट, जिसकी कानूनी वैधता मैं उतनी ही जानता हूं जितना कोई और, ने वहां पर काम करना शुरू कर दिया है। और मैं देख रहा हूं कि इन्हीं चंद रोज में मेंड़ की रौनक की बहुत कुछ भरपाई होने लगी है।
Leave a Reply