मित्रों के साथ सामान्य बातचीत में मैंने अकसर देखा है कि उनमें अपनी नई पीढ़ी के मानसिक स्तर या विकास को लेकर एक जबर्दस्त आवश्वस्ति है। चूंकि हमारी नई पौध में ऐसा कुछ है जिसका ताल्लुक (कुछ और नाम देने की बजाए) इक्कीसवीं सदी से है… प्रखर, चुस्त और तेज-तर्रार। प्रतियोगिता और प्रतिद्वंद्विता के भीषण माहौल में जो इन गुणों से लैस नहीं होगा, पिछड़ जाएगा और मात खाएगा। और जो लगातार आगे बढ़ता जा रहा है, इन गुणों से लबरेज होगा ही। उदाहरण दिए जा रहे हैं कि हमारे (यानी 20-25 वर्ष पूर्व या उससे भी अधिक) समय में जो दक्षता बी.ए. के छात्र हासिल करते थे आज आठवीं-नौवीं का बच्चा आसानी से कर लेता है। कंप्यूटर तो खैर पहले था ही नहीं, लेकिन अन्यथा भी यह पीढ़ी कहीं अधिक फुर्तीली और संपन्न है। पहले साठ प्रतिशत से अधिक पाने वाले विरले होते थे; आज नब्बे प्रतिशत वालों की संख्या कम नहीं होती है। पहले जिस प्रतिशत को लेकर इंजीनियरिंग की डिग्री के लिए दाखिला हो जाता था उसके आधार पर आज डिप्लोमा में दाखिला नहीं मिलता है।
अध्ययन के अलावा दूसरे क्षेत्रों में भी बदलाव की यही गत्यात्मक प्रवृत्ति आई है। एक खिलाड़ी बनने के लिए 15-16 की उम्र में नहीं, 8-10 की उम्र में ही फैसला कर लेना पड़ता है। उसी के अनुरूप तैयारी करनी होती है। देर हुई तो गए काम से। कोई और बाजी मार ले जाएगा। मामूली देर भी अब बहुत निर्णायक और ज्यादा होने लगी है। दसवीं-बारहवीं की परीक्षाओं के टॉपर्स के साक्षात्कार देखिए… कितने आत्मविश्वास और निर्णयात्मक लहजे में कहते हैं…किसी को चार्टेड अकाउंटेंट बनना है, किसी को फलां संस्थान से कंप्यूटर इंजीनियरिंग करना है, किसी को…।
इतनी कच्ची उम्र में अपने भविष्य और जीवन के बारे में बच्चे की दो टूक बातों को सुनकर अचरज तो होता ही है, डर भी लगता है। अचरज का कारण तो हम स्वयं होते हैं। डर का कारण है वे असफलताएं या बाधाएं है जिनसे दो-चार होने के लिए उसने अपने को कभी तैयार ही नहीं किया है। ठीक है, एक मासूम बच्चा दिल्ली के श्रीराम कॉलेज से ही बी.कॉम. करना चाहता है। कर भी लेता है। फिर फटाक से चार्टेड या लागत लेखाकार और कंपनी सचिव के तमगे भी लगवा लेगा। लेकिन उसके बाद क्या होगा? यानी पढ़ाई के परंपरागत रूप का सिलसिला जब रुकेगा और वह जीवन से रूबरू होगा, तब? स्पर्धा की मानसिकता से लैस कंपनियां के ऑडिट की दस-बीस हजार की फीस उसकी महत्वकांक्षा को पूरी खुराक दे पाएगी? कभी नहीं। तब वह अभी तक हथियाई गई योग्यताओं का क्या करेगा? जाहिर है, या तो अपनी ग्राहक (या संभावित) कंपनियों को तरह-तरह के विस्तार करने के सब्जबाग (प्रोजेक्ट रिपोर्ट) दिखाएगा ताकि खुद मालामाल हो सके या खुद ही कोई लीज-वित्त इकाई खोलेगा जिसमें आम आदमी या बड़ी सरकारी-सहकारी संस्था का मोटा कर्जा जुड़ा होगा। आंकड़ों और खातों से चुहल करने में तो वह महारत पा ही चुका है। फर्राटेदार अंग्रेजी और टाई-पतलून के सहारे उसकी पैठ समाज के संचालक वर्ग में बन ही चुकी होती है। वह ‘भंसाली’ के रूप में उभरता है और निर्दोष, सेवानिवृत्त या छोटे-छोटे निवेशकों की जिंदगी भर की पूंजी गटकने में उसी आत्मविश्वास से पेश आता है जिससे वह दसवीं कक्षा का टॉपर होने पर आया था।
यह भी हो सकता है कि उसने इंजीनियरिंग करके किसी आईआईएम से एमबीए कर लिया हो और फिर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी का साबुन-तेल या टीवी बेचने का विनम्र ठेका उठा लिया हो। वह पांच सितारा होटलों में ठहरे (यह बात अलग है कि वहां के चुराए तौलियों से उसकी आलमारी भर चुकी हो), हवाई जहाज में घूमे-फिरे (कंपनी खर्च पर ही), जमकर खाए-पिए और महंगे आयतित कपड़े पहने (जिसे कंपनियां कर्मचारियों के ‘कल्याण खर्च’ के मद में डालती हैं)– यही सब उसके सामाजिक सरोकारों के ढूह बन जाते हैं। उसकी तमाम सामर्थ्य और दक्षता को सरपट दौड़ने को मौजूद हैं इंटरनेट की सैंकड़ों सेक्स साइट्स,नाइट बार या ओवर-सीज ट्रिप्स । यहां तक कि साबुन-तेल की तरह उसका भी एक बाजार है। उस पर निगाह रखने वाले एजेंट हैं। बेहतर (अर्थात ज्यादा) पे-पैकेज के लिए वह 10-20 वर्ष के अपने नियोक्ता का संपरित्याग कर देगा और तमाम विपणन रणनीति के गुरों को उसके प्रतिद्वंद्वियों की गोद में बैठकर उगल देगा। नैतिकता और ईमानदारी? आप किस जमाने की बात कर रहे हैं। और हां, यदि वह देश सेवा करने के नेक इरादे से किसी शीर्ष केन्द्रीय सेवा का नौकरशाह बनता है तब उसकी सारी ऊर्जा और क्षमता अपने आकाओं की जी-हुजूरी और अलग-अलग मदों से नियमों में उपनियमों के सेंध लगाकर लाखों-करोड़ों बटोरने में खपती है। फिर भी उसका स्थाई स्वर गमगीन रहता है क्योंकि निजी क्षेत्र के अपने समकक्षों के मोबायलों से उसे तकलीफ होती है। विचारधारा, जाति और कर्म को वह ‘आक्रमण’ होने पर कवच और शान्तिकाल में हथियार की तरह उपयोग करता है।
इक्कीसवीं सदी का प्रतिनिधित्व और परिचालन करने वाली इस पीढ़ी से मेरी तो रूह कांपती है। बहुत शक्तिशाली इंजन उस गाड़ी को कहां लेजा पाएगा, जिसके पहिए चौकोर हों?
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