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पक चुके हैं जो, सड़ेंगे ही

May 08, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

सामाजिक कर्मी और कवयित्री कात्‍यायनी के कल-परसों अहमदाबाद प्रवास के अवसर पर जो अनौपचारिक बैठक रखी, उसमें एक अध्‍यापक मित्र भी शामिल हुए और तभी मुझे बरबस खयाल आया कि शिक्षक होना कितना खतरनाक होता है। कला और यथार्थ को लेकर अपनी पसोपेश बांटते हुए मैंने जाहिर किया कि यह चाहे जोखिम भरा हो मगर सृजनात्‍मकता को मैं अधिकतर कला के पक्ष में रखकर ही सोच पाता हूं। परिवेश के अनुभव और निरीक्षण मेरी सोच और संवेदना का हिस्‍सा बनते ही हैं मगर उनके सृजनात्‍मक रूपान्‍तरण के समय हुकूमत सिर्फ कला की चलती है। चाहे वह भाषा के स्‍तर पर हो अथवा शिल्‍प-प्रभाव के स्‍तर पर। इसे यदि ‘मैं’ नोशी न माना जाए तो कहने का मन है कि उस समय मेरा कलाकार उन तमाम अनुभवों और मर्यादाओं को रोंदने या बेदखल करने से भी गुरेज नहीं करता जिन्‍हें सोच और सामाजिकता के तहत मेरा व्‍यक्ति ओढ़े-लादे घूमता-फिरता है। मेरा मतलब था कि सृजनात्‍मकता दरअसल कला की स्‍वायत्‍तता में रची-बसी होती है हालांकि उसके गर्भ में परोक्ष-अपरोक्ष रूप से निजी-सामाजिक यथार्थ की भूमिका से इनकार नहीं किया जा सकता है। कुछ मित्रों की राय थी कि सामाजिक उपादेयता किसी भी कला की आवश्‍यक कसौटी होनी चाहिए जबकि, तर्क की अहमियत के बावजूद, मुझे यह नजरिया आग्रहपूर्ण और संकीर्ण लगता है। लेखन को एक एस्‍केप के रूप में लिया जाता है(वर्ना उन्‍हें सिर्फ सामाजिक कर्मी ही होना चाहिए)तो यह इसलिए भी है कि यह सारे बन्‍धनों का प्रतिकार क्षेत्र भी है और प्रभाव क्षेत्र भी। दूसरे रूप में देखें तो सामाजिक उपादेयता कला की सबसे बड़ी दुश्‍मन हो सकती है। कला के निरन्‍तर अतिक्रमित करते चरित्र को यथास्थितिवाद की बेड़ियां पहनाने के कारण भी और उसके नैसर्गिक-मूलभूत चरित्र, यानी स्‍वच्‍छन्‍दता में सेंध मारने के कारण भी। रिल्‍के जैसे कवि ने तो कला के सृजन के लिए खुदगर्जी को उसकी भीषण जरूरत करार दिया है। कात्‍यायनी ने यथार्थ और कला के द्वंद्वात्‍मक अन्‍तर्संबंधों की चर्चा करते हुए दोनों के मध्‍य एक नाजुक समन्‍वय साधने की बात कही। इस चुनौतीपूर्ण कार्य में ‘दृष्टि’ की अहमियत स्‍थापित करने के लिए उन्‍होंने गोर्की की एक कहानी ‘जब इन्‍सान पैदा हुआ’ की चर्चा की।

 

मगर विश्‍वविद्यालय में स्‍नातकोत्‍तर स्‍तर पर अध्‍यापन करते उस मित्र को पूरी बहस और उलझन बहुत बेबुनियाद और हवाई लग रही थी। उनके लिए चीजें एकदम सरल और सहज थीं। ‘लेखक अपने सामाजिक दायित्‍वों से नहीं बच सकता… कोई भी दायित्व  कला से बड़ा होता है…’ उन्‍होंने अन्‍त तक आते-आते न  जाने कितने फतवे कस दिए। सत्‍यजीत राय की फिल्‍में और सूजा की पेंटिंग्‍स को क्‍या इसीलिए खारिज किया जा सकता है कि वे उनमें प्रदर्शित ‘वास्‍तविक’ चरित्र आम आदमी की समझ से परे की चीज हैं? मुझे आश्‍चर्य से ज्‍यादा रहम इस बात पर आया कि विश्‍वविद्यालय के अध्‍यापन (और मत भूलो ‘शोध’) से जुड़ा व्‍यक्ति मुद्दे की परतों को जानने-समझने से कितना कतराता है। या कहूं कि कतराना भी उसे कहां आता है। उसके लिए हर मुद्दा, हर समस्‍या एक तयशुदा यकीन है जिसके पक्ष-प्रतिपक्ष की एक-एक बारीकी का उसे बरसों पहले ही पता होता है। वह सीधे नींद से उठकर भी उन पर चट से निर्णय सुना सकता है, सिद्ध कर सकता है। अपने एक छात्र के साथ की हुई उनकी टिप्‍पणी याद आए बिना न रही। छात्र हिंदी लेखक स्‍व. जगदीश चन्‍द्र और गुजराती लेखक जोसेफ मैकवान के उपन्‍यासों में, समकालीनता के मुताबिक, दलित चेतना का तुलनात्‍मक अध्‍ययन करना चाहता था। इस पर उन्‍होंने अपने हिसाब से बड़े पते की टिप्‍पणी की ‘‘लेकिन जगदीश चन्‍द्र तो दलित नहीं थे?(कितनी गलत बात है!) और फिर उपन्‍यास ही क्‍यों, कहानियां क्‍यों नहीं?’’(बिना जाने कि जगदीश चन्‍द्र का कहानियों में क्‍या अवदान है।) मैंने गौर किया कि छात्र, जो स्‍वयं एक कालेज में अध्‍यापक था, उनकी बातों पर उसी विद्यार्थीनुमा हामी में गर्दन हिलाए जा रहा था जिसका वह भोक्‍ता और प्रवक्‍ता है। जाहिर है यह पूरी जमात पर फिकरा नहीं है मगर जिस बन्‍द मानसिकता से अध्‍यापक खुद को दुनिया का सबसे प्रबुद्ध, जानकार जीव ठहराने से बाज नहीं आते हैं, उसी दर्शन का सूत्र मुझे हाथ लगा। पेशे से ही विश्‍वविद्यालय अध्‍यापकों को एक ऐसी कैप्टिव ऑडियंस मुहैया होती है जिसके पास असहमति की न कोई संस्‍कृति है और न उसका इस्‍तेमाल कर वह अपना भविष्‍य दांव पर लगाने का जोखिम उठाना चाहती है। कौन प्रश्‍न करेगा उनकी प्रज्ञा या स्‍थापनाओं पर? छह सौ वर्ष पहले इरेसमस ने क्‍या यूं ही कह डाला था– और ऐसे सार तत्‍वों का एक कतरा पढ़कर ही शब्‍द की अपरिमित सत्‍ता के प्रति सजदा होने का मन करता है– मानवीय विकास, उसकी सीमाओं और खतरों के प्रति एक लेखक ही इतना दृष्टिवान हो सकता है— कि सारी कलाओं का रहस्‍य उनके संक्षिप्‍तीकरण में समाया होता है… कि पकने के बाद तुम सड़ ही सकते हो… यूं राइप एंड रॉटन। यानी किसी को लगता है कि वह सर्वगुण सम्‍पन्‍न और सर्वज्ञानी हो गया है तो पक्‍का मानिए वह क्षयरोगी है जिससे बचना स्‍वास्‍थ्‍यवर्धक है। मुकम्‍मलपना एक आवेग और कशिश की तरह हमारी चाहत का हिस्‍सा हो, यह जरूरी है। लेकिन लाख बड़ी उपलब्धियों के बावजूद कभी यह मुगालता न रहे कि इसे (या) और अन्तिम सत्‍य को पा लिया गया है या पा लिया जा सकेगा। जो महात्‍मा मुकम्‍मलपना हासिल कर चुके हैं, मेरे जैसे अनगढ़ और दोयम के हकदार भी कहां हैं?

 

जहां तक नौकरशाही की बात है, वहां तो कितनी बेशर्मी से यह पूज्‍य दर्शन गढ़ लिया गया है कि ‘बॉस हमेशा सही होता है’(इसके पार्श्‍व में दरअसल तो खून का बदला खून वाली प्रतिक्रियावादी हसरत कार्य करती है)। सभ्‍यता की समाप्ति पर पुरातत्‍ववादी कभी खोज भी पाएंगे कि नहीं कि ऐसे ही मासूम दिखते चलने वाला, हट्टा-कट्टा लंबा डायनासरी काल, बिना वजह, यूं ही खत्‍म हो सकता था क्या?

 

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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