मेरे एक सहकर्मी हैं। बेहद मेधावी। स्कूल-कॉलेज से ही अव्वल दर्जे में पास होते रहे। इंजीनियरिंग की। दो-चार अच्छी-खासी नौकरियों को ठोकर मारने के बाद एक शीर्ष केंद्रीय सेवा में लग गए। चंद दिनों में घर, गाड़ी और मोबाइल से लैस। एक समकक्षीय कन्या से विवाह किया। सुबह से शाम तक घर-दफ्तर में खूब दबदबा रहता। लेकिन फुर्सत के क्षणों में अकसर छटपटाते दिखते। जैसे कुछ संगीन अंदरूनी बेचैनी हो। ‘यार 15-20 हजार की नौकरी ही करनी थी तो इतनी पढ़ाई और इस सेवा में आने की क्या जरूरत थी… वह तो बहुत पहले ही मिल रही थी’। ‘लेकिन भाई, सरकारी नौकरी में इससे ज्यादा और क्या होगा।…’ ‘नौकरी के बाद पेंशन अलग पीटो’। मैंने व्यावहारिक तर्ज में कहा। ‘पैसे की बात नहीं है… काम यानी जॉब सेटिस्फेक्शन की बात कर रहा हूं’।
इस संवाद को उद्धृत करने का मकसद इस मित्र की नौकरी में रहते हुए कसमसाहट और हताशा को ही उजागर करना है। ‘यार नौकरी तो सरकार में सब गधे-घोड़े कर रहे हैं…. मैं चाहता हूं समाज के लिए कुछ करूं… कुछ अलग… नहीं तो एक दिन औरों की तरह मैं भी खूसट हो जाऊंगा, रिटायर होकर मरते दम पेंशन खाऊंगा और मर जाऊंगा…. लेकिन ये भी कोई जीवन होगा…’। ‘कुछ साहित्य आदि पढ़ना-लिखना शुरू करों’। मुझे जो सहज लगा सुझा दिया। ‘साहित्य तो एकदम फालतू की चीज है यार… खाली-पीली शब्दों का खेल, हवाई कुलांचें भरना….’
‘तुम साहित्य नहीं पढ़ते हो इसलिए कह रहे हो…. ठीक है साहित्य उस रूप में कोई समाज सेवा नहीं है लेकिन इसका नशा यदि हो जाए तो तुम्हारी सारी अकुलाहट सृजनात्मक हो उठेगी… अंततः इसका मकसद समाज को पहचानना, समझना ही है…. इससे जुड़कर कमजकम ‘क्या करूं’ जैसी समस्या तो कभी नहीं उठती है’।
मेरी मासूम सलाह के पीछे उसकी मेधा का वर्चस्व था। मेरी बातों से उसे जरा भी इत्तिफाक रहा हो, नहीं लगा। जो अकुलाहट थी बरकरार रही। मुझे यही संतोष हुआ कि चलो यह मित्र अपनी जिदंगी को औरों की तरह ‘सुबह होती है शाम होती है, जिंदगी यूं ही तमाम होती है’ की चकरघिन्नी में तो गर्क नहीं होने दे रहा है। यथास्थिति के साथ उसकी नाराज़गी है और कुछ अलग-सा करने का लक्ष्य चाहे न सही, उसे पाने की अकुलाहट या कोशिश तो है।
लेकिन जल्द ही मैं निरा गलत सिद्ध हो रहा था। एक सड़क दुर्घटना में सेवा के एक साथी-मित्र की मौत हो गई। उसकी पत्नी निरक्षर और चार छोटे-बड़े नाबालिक बच्चे। बेहद सामान्य परवरिश का आदमी। जाहिर है मृतक के परिवार का संकट बहुआयामी था। उस शहर के साथियों ने सूचित किया कि दिवंगत मित्र के परिवार की विपदा से निपटने के लिए एक न्यास बनाया जा चुका है जिसके लिए आर्थिक योगदान की आवश्यकता है। हम लोगों ने तुरंत बैठक की और यथाशीघ्र अधिक से अधिक रकम एकत्र करने का फैसला लिया। अलविदा साथी की ढेर सारी स्मृतियां हमें फिर-फिर कर जिलाने लगीं। हादसे से हम सभी सन्न थे और इतनी कम उम्र में विधवा हुई पत्नी और बच्चों के साथ अपना तादात्म्य कर रहे थे। आखिर जिन परिस्थितियों में यह हादसा हुआ, किसी के साथ भी हो सकता था… दफ्तर के बाहर ही पीछे से एक भारी वाहन द्वारा रौंद दिया जाना।
लेकिन मित्रों से ही रकम एकत्र करने में व्यवस्था का हिंसक पक्ष उभर आया… मैं ही क्यों बार-बार औरों को फोन करता फिरूं… अभी तक पांच लोगों ने संदेश छोड़ने के बावजूद पलटकर फोन नहीं किया है… कल तो पूर टाइम ही बॉस के साथ निकला… परसों तक एक जरूरी रिपोर्ट भेजनी है।… डॉक्टर को दिखाने के लिए बच्चे को ले जाना था इसलिए कोई संपर्क नहीं कर पाया… स्टेनो बिना बताए गायब है… और कोई इस मामले में रुचि क्यों नहीं ले रहा है… क्या उनका साथी नहीं था… जाने दो, जब होगा, हो जाएगा…।
किसी तरह से लक्ष्य को अंजाम दिया गया। लेकिन जो बातें इस अनुभव से समझ आती हैं, दो टूक हैं। व्यवस्था सचमुच अवचेतन में भी हमारा पीछा नहीं छोड़ती है। नौकरशाही की केंचुल को अधिकतर लोग सूखने पर भी नहीं उतारना चाहते हैं। इस मित्र द्वारा कुछ विशिष्ट और सामाजिक कार्य करने के पीछे या तो दफ्तरी जीवन का अपराधबोध दबाव डालता है या अपने विजिटिंग कार्ड को फोल्ड करने की नौबत तक लंबा करवाने की लालसा। काम करने के अवसर पैरों पर चलकर हमारे पास नहीं आते हैं, उन्हें बहुत सहृदयता से उठाकर मुकम्मल करना होता है। न करने के कारणों की कोई फेहरिस्त नहीं है। विशिष्ट कार्य करने की संभावनाएं सामान्य रहकर भी बनाई जा सकती हैं बशर्ते हम खुद से ही आंख मिचौली न खेल रहे हों।
मैं जानता हूं कि एक रोज वह फिर समाज के लिए ‘कुछ’ करने की अपनी सदिच्छा का इजहार करेगा। बावजूद इस सबके।
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