बीसेक वर्ष पहले जब मैंने विकास का अर्थशास्त्र पढ़ना शुरू किया था तो बहुत सारी अवधारणात्मक जुमलेबाजी के बीच एक पतली-सी किताब–जिसके लेखक का नाम बहुत कोशिश करने पर भी नहीं याद आ रहा– की यह बात मुझे बहुत जंची थी कि विकसित देशों की तरक्की में यदि सबसे बड़ा हाथ है तो वह विकासशील या अल्पविकसित देशों का ही है। इसमें जरा भी आश्चर्य नहीं है। पूरे तथ्यों और आँकड़ों के आधार पर लेखक ने यह पेशकश की थी कि फिलहाल के विकसित देशों ने चूंकि एक औपनिवेशिक आधार पर सवारी करते हुए तमाम मंजिलें हासिल की हैं, अतः उनके विकास का प्रमुख कारण दूसरे संबंधित देशों का पिछड़ापन है। विकसित देश इसलिए विकसित हो सके कि अल्पविकसित उपनिवेश एक साधन और घूरे के बतौर उनके दालान में मौजूद थे। बिना किसी पूर्व मार्क्सवादी सोच के मुझे पूरा तर्क इतना पसंद आया था कि मैं विकास करने के लिए उपनिवेशों का होना जरूरी मानने लगा था। और चूंकि भारत जैसे देशों के पास तो कोई उपनिवेश है नहीं, अतः भारत का तो कभी विकास हो ही नहीं सकता। खैर, बहुत जल्द ही विद्वान अध्यापकों ने मेरी गलतफहमी को दूर कर दिया। लेकिन कभी-कभी सोचता हूं कि क्या उस सोच के पीछे एक खालिस और मासूम अज्ञान या अल्पज्ञान ही था या विकास की अवधारणा की चिरौरी करती कोई कंटीली प्रश्नाकुल प्रवृति। मेरे अध्यापकों ने कूट-कूटकर समझा दिया था कि विकास की पहली और आखिरी कुंजी होती है साधनों की उत्पादकता। बढ़ाइए संसाधनों की उत्पादकता और बन जाइए अमीर।
वर्ष 1999 के समाप्त होते-होते दुनिया में उपनिवेशों का नामोनिशान भी नहीं रह गया लेकिन इसके बरक्स उन देशों के विकास की ‘प्रगति रिपोर्ट’ देखें तो दो-चार अपवादों को छोड़कर लगेगा कि सौ-सवा सौ देशों की आर्थिक वस्तुस्थिति में कोई गौरतलब बदलाव नहीं ही आया है। बहुत सारे देश राजनैतिक रूप में स्वतंत्र तो हुए लेकिन स्वयं के औपनिवेशिक तकिए के अभाव में उनका विकास नहीं हो पाया। यों भी कहा जा सकता है कि ये देश परंपरागत यानी राजनैतिक रूप में ही आजाद हुए; निर्भरता के बदलते रूपों और प्रतिमानों के चलते आर्थिक और सामाजिक रूप में बहुत सारे देश कभी आजाद हुए ही नहीं। बहुतों ने होना ही नहीं चाहा या बहुत सारे स्वतंत्र होकर दोबारा उसी चंगुल में चले गए जिसे गरीबी का दुष्चक्र कहा जाता है।
फिलहाल एक अन्य कारण से मुझे अपने इस ‘मासूम अज्ञान’ का स्मरण हुआ है। विकास की अवधारणा को यदि सूक्ष्म रूप से देखें तो यह किसी समाज में व्यक्तियों की अमीरी-गरीबी से संबद्ध है। पता नहीं मेरा वही मासूम अज्ञान फिर-फिर मेरे करीब खड़ा होने लगता है। मसलन, क्या ऐसा हो पाएगा कि हमारे जैसे समाज में सभी लोग एक साथ अमीर हो जाएं? अमीरी के साथ जिस तरह की प्रवृत्तियां हमारे आसपास पनप रही हैं, उन्हें देखकर तो कम से कम ऐसा कतई नहीं लगता है। जैसे हमारे समाज में जिन चंद खुशकिस्मत लोगों के पास अमीरी आती है, वे गाड़ी-बंगला और दो-चार इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों के साथ-साथ नौकर भी पालने लगते हैं। लोग अमीर होते जाएंगे तो नौकरों की संख्यां भी बढ़ेगी ही। इसका मतलब है, पूरी प्रक्रिया में ही कोई मूलभूत खोट है। भयंकर बेकारी, अशिक्षा और विपन्नता के चलते कुछ लोग मान सकते हैं कि इस तरह के घरेलू कामकाज में खप जाने से दरअसल इन दूसरे किस्म के लोगों का भी ‘विकास’ हो रहा है। हो सकता है।
मगर कुछ परिचितों से हुए मेरे अनुभव तो इस निष्कर्ष तक पहुंचने से साफ मना करते हैं। एक मित्र हैं जिनके यहां पांच-छह वर्ष का बच्चा नौकर है जो उनके ढाई-तीन वर्ष के बच्चे की सेवा में तत्पर रहता है। किसी पार्टी वगैरा में जब पति-पत्नी शरीक होते हैं तो पंद्रह किलो का बच्चा-नौकर घंटों के हिसाब से दस किलो के बच्चे को उठाए घूमता है। उस नौकर को न किसी प्रकार के स्कूल की दरकार है न खेल-खिलौनों की। उसके जीवन की सार्थकता इसी में है कि वह अपने मालिक के बच्चे की परवरिश में खुद की स्वाह करे। एक अन्य परिचित का नौकर अपने ‘राजकुमार’ को पूरा गिलास दूध न पिलवा पाने के कारण अकसर मेमसाब से मार खाता है। उसके सोने के लिए सर्दी-गर्मी-बरसात रसोईघर ही मुकर्रर है— चाहे वहां लाख मच्छरों-कॉक्रोचों का साम्राज्य हो। एक अन्य मित्र जब भी छुट्टियों में ‘देश’ घूमने जाते हैं, नौकर महाशय को किसी ऐसे मित्र के यहां छोड़ते हैं जहां वह ‘सुरक्षित’ हो। क्या पता ‘देश’ ले जाने पर उसका वापस आने का मन न हो। शुक्र है, उन्हें एहसास है कि इन लोगों के भी मन होता है। एक अन्य परिचित, जिनका परिवार नौकरी के कारण तीन शहरों में रहता है, अपने ही देश के एक पूरे परिवार को खिदमत का मौका दे रहा है ताकि एक जगह चूक होने पर दूसरी जगह कान-उमेठी की जा सके।
अपवाद हो सकते हैं लेकिन घरेलू नौकरों के प्रति ज्यादातर लोगों का रवैया किसी क्रूर सामंत से बेहतर नहीं दिखता। इसमें आश्चर्य नहीं कि उनकी पीड़ा का गुबार कभी अत्यंत भयानक रूप अख्तियार कर लेता है।
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