मेरी एक रिश्तेदार डॉक्टरी की पढ़ाई कर रही है। प्रतियोगिता और प्रतिद्वन्द्विता के इस युग में एक अच्छे संस्थान से डॉक्टरी की पढ़ाई करने के लिए, कहना न होगा, सामान्य से कहीं अधिक मेहनत और मस्तिष्क की आवश्यकता होती है। लेकिन वह खूब सक्षम है। यहां तक कि अभी तक हुई तीन चार छमाही और दो सलाना परीक्षाओं में भी वह संस्थान में अव्वल रही है। उससे कभी बातचीत करके मुझे अपने कलाप्रिय होने पर ग्लानि होने लगती है। मानव शरीर और उसके एक-एक पुर्जे और विभाग का सिलसिलेवार ‘विखंडन’ करती डॉक्टरी की पढ़ाई जब एक से एक बीमारी और उनकी जटिलता से भिड़ने के इस असमाप्त इतिहास का उद्घाटन करती है तो मैं सिर्फ भौंचक होकर मनुष्य की सर्वश्रेष्ठ ऊंचाइयों की लालसा और हासिल प्रति नतमस्तक होने लगता हूं।
मस्तिष्क की कौन सी नस है जो सिर दर्द होने पर आदमी को इस कदर अस्थिर और तड़पा देती है… और इस गोली को बनाने में कैसे-कैसे एक-एक कदम रखा गया होगा कि खाने के बाद वह ठीक उसी जगह, उसी नस को दबोच ले, पूरे शरीर को बेअसर रखते हुए… इन जैसे ‘साधारण’ आश्चर्यों से लेकर हृदय रोग, कैंसर और प्रसव संबंधी एक से एक जटिल बीमारी और उसके निदान की पद्धति को पाठ्यक्रमों तक पहुंचाई गई संहिता को देखकर मैं लगातार अचरज में आ जाता हूं। जरा-जरा से बच्चों की बेहद जटिल शल्य चिकित्सा की खबरों को टीवी या समाचारों में देखकर मैं उन डॉक्टरों को प्रणाम करने लग जाता हूं जिन्होंने मेरी तरह की जन्म लेकर अपने होने को मानवता के लिए इस कदर सार्थक और उपयोगी बनाया है।
तब मुझे यह भी लगता है कि मानव–जो असंदिग्ध रूप से जीवों में ईश्वर का सर्वश्रेष्ठ ‘उत्पाद’ है– ने अपने ही निमार्णकर्ता की सत्ता में कितने चुनौतीपूर्ण ढंग से सेंध लगा ली है। ‘सेंधमारी’ का यह सिलसिला बिजली, रेडियो, उपग्रह तथा आणविक शक्ति के विकास के रूप में दूसरे विज्ञानों में भी उतने ही जोश-खरोश से चल रहा है। एक तरफ हमने परमाणु तथा मानवीय कोशिकाओं के एक-एक गुण-दोष के साथ-साथ उनकी क्षमताओं और उन्हें नियंत्रित करने का ज्ञान हासिल कर लिया है तो दूसरी तरफ अरबों-खरबों मील दूर विशालतम अदृश्य नक्षत्रों और ग्रहों की भी असमाप्त जानकारी भी ढूंढ़ निकाली है। और यह सिलसिला प्रतिदिन कुछ और ऊपर खिसकता जा रहा है–कठिन से कठिनतम होते जा रहे इस समय के बावजूद यह सब किसने संभव किया है? लगातार पलती-पनपती उस वैज्ञानिक सोच ने ही जो हर चीज को संदेह की निगाह से देखती है। कुछ भी स्वीकार करने से पहले ‘क्यों‘, ‘क्या’, ‘कैसे’, ‘कब’ और ‘कहां’ जैसी भूखी चीलें उन भुरभुरे तथ्यों को दागती हैं जो किसी निरीक्षण का ही नतीजा होते हैं। कल्पनाशक्ति भी जहां किसी कवि के रूपकों-मिथकों की बैसाखियों पर न टिककर विवेकशीलता की उस ‘जैक’ पर टिकी होती है जिसका उपयुक्त औजारों द्वारा पुष्टि करने योग्य अपना आधार और संसार होता है।
लेकिन डॉक्टर बनने के पायदान पर खड़ी मेरी वह रिश्तेदार जब इस बार मिली तो उसकी उंगलियों में एक-दो अतिरिक्त अंगूठियों को मैं बिना लक्ष्य किए न रह सका। पूछने पर उसने समझाया कि बाएं हाथ की बड़ी उंगली में ‘नीलम’ और सीधे हाथ की तर्जनी में ‘रूबी’ है। उसकी मम्मी के पास एक बहुत पुराने और विद्वान ‘पंडितजी’ आए थे। सभी उनको बहुत मानते हैं। उन्होंने ही उसके लिए, पूरे सोच विचार के बाद, यह खास नीले रंग का ‘नीलम’ बताया था। महंगा जरूर है लेकिन है कारगर। यही बात ‘रूबी’ के लिए सच है। और सच्ची, हफ्ते भर में ही इनका असर दिखने लगा है…पहले मुझे हरदम खट्टी डकारें आती रहती थीं, जब देखों तब माइग्रेन हो जाता था, यहां तक कि गाहे-बगाहे टीचर्स लोग भी बात-बेबात डांट-फटक देते थे… अब सब कुछ ठीक हो रहा है…दोनों सूट कर गए हैं…मैं आपको समझा नहीं सकती…लेकिन ऐसा होता है…। उसने पूरी मधुरता और सदनीयत से समझाया।
तभी से मुझे रह-रहकर यह बात परेशान-हैरान कर रही है कि हमारे उत्कृष्ट से उत्कृष्ट मस्तिष्क भी क्यों अकसर पिछड़ेपन और अविवेक से ग्रसित हो जाते हैं? खट्टी डकारों और माइग्रेन के उपचार में ‘नीलम’ की भूमिका को जब एक चिकित्सा स्नातक ढूंढ़ने-समझने और तिरस्कृत करने को तैयार नहीं है तो औरों का क्या कहा जा सकता है? किसी बड़े आपरेशन से पूर्व या या क्लीनिक खोलने के बाद, एक कोने में विराजमान आराध्य के समक्ष सफलता की कामना करना उस स्वाभाविक आस्था का अंग हो सकता है जो हमारे छोटे-बड़े अहम पर लगाम लगाए रखती है। लेकिन अंगूठी के पत्थरों में उपचार खोजना उस पूरे ज्ञान-विज्ञान का अपमान लगता है जिसने हमारे समय और सभ्यता को विकास की वर्तमान उपलब्धियों से नवाजा है।
बात एक लतीफे के बतौर कही गई थी लेकिन एक मित्र का कथन कि हम इक्कीसवीं सदी में हनुमान और कंप्यूटर एक साथ उठाए लिए जा रहे हैं-गोकि कंप्यूटर पर संकट आया तो संकट मोचन ही तो संभालेंगे-कम प्रासंगिक नहीं लगता है।
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