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धीरे-धीरे अंधेरा

May 08, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

खौफ में तो मैं तब भी आया था जब कुछ महीने पहले दिल्ली के शहजादों के शोहदों ने खेल-खेल में अपनी आलीशान कार तले कुछ फालतू निर्दोषों को कुचल डाला था। लेकिन तब वह मुझे एक वर्ग विशेष की संस्कृति का धिनौना रूप लगा था। मगर फिलहाल की दो सूचनाओं-अनुभवों ने मुझे अलग-अलग स्तर पर ज्यादा और गहरे तक दहशतजदा किया है।

‘जनसत्ता’ मैं ही खबर थी कि ग्यारह सितंबर को राजस्थान के नाचना नामक कस्बे में एक चाय वाले ने अपने ग्राहक की छाती में इसलिए गैंती पार कर दी कि वह चार रुपए की उधारी को उसी समय नहीं चुका रहा था। यह ठीक है और बड़ों ने कहा भी है कि उधारी से धंधा बरबादी की तरफ बढ़ता है और एक मामूली चाय बनाने वाला यदि इस राह चलेगा तो उसे दो जून रोटी के लाले पड़ जाएंगे। लेकिन एक बाईस वर्षीय युवक की जान क्या सिर्फ इतनी होती है कि उसे चार रुपए की वसूली की एवज में लिया जा सकता है? जनसंख्या की ‘मांग’ की ‘पूर्ति’ का बाजार क्या ‘कीमत’ का साम्य चार रुपए ठहरा रहा है? इस गणित के अनुरूप तो चार सौ रुपए में कई जानें ‘चुकता’ की जा सकती हैं! एक और चुनाव द्वारा लादे गए जश्न के बावजूद अखबार के किसी गुमनाम कोने में दबी ऐसी कोई खबर मेरे भीतर एक वीभत्स अवसाद भर जाती है। यह हिंसा और क्रूरता किसी वर्गीय रंग की नहीं है जिसे ऐतिहासिक मानकर खारिज किया जा सके। यह उन ढेर सारी प्रवृत्तियों, नीतियों, फलसफों और प्रभावों का सांकेतिक अर्क-निष्कर्ष मात्र है जिनके तहत हम रह रहे हैं। किसी सुबह एक बाप अपने बच्चे का खून इसलिए कर देता है कि उसने स्कूल का दिया गृहकार्य नहीं किया, एक पति अपनी पत्नी को इसलिए भून देता है कि उसने उसे शराब पीने के लिए पैसे न देने की जुर्रत की…। दहेज और डकैती जैसे ‘परंपरागत’ कारणों से हमने बेशक निजात नहीं पाई है लेकिन खून करने के कितने नए, विचित्र और उत्तर-आधुनिक कुलाबे हमने खोल दिए हैं ।

यह भी लगता है कि पिछले वर्षों में हमारे आसपास हिंसा तो खैर अप्रत्याशित रूप में बढ़ी ही है, उससे भी अधिक बढ़ी है क्रूरता। किन्हीं खास परिस्थितियों में हिंसा के औचित्य को तो महात्मा गांधी तक ने उचित करार दे दिया था। लेकिन क्रूरता? उसका तो उस रूप में न कोई रखवाला है, न हो सकता है। और एक यह है कि अमरबेल की तरह समाज और व्यक्तियों में बची-खुची संवेदना के जीव-जीवट का पूरी भयावहता से गला घोंटती जा रही है। हिंसा तो गोया इसकी चौंसठ भुजाओं में से एक है। इस संदर्भ में पिछले सप्ताह पंचतत्व में विलीन हुए महेशभाई का मैं जिक्र कर रहा हूं तो इसलिए कि जब उनकी वस्तुस्थिति का पता चला तो एकबारगी जरूर एक वीभत्स ‘कहानी’ की संभावना ने मेरे तहत मुंह उघाड़ा था। लेकिन क्रूरता के उस बरपाते यथार्थ के समक्ष वह पलभर में पिघलकर गुम हो गई।

गांधीनगर में एक सरकारी उपक्रम में क्लर्क की नौकरी करते महेशभाई और उनकी पत्नी शांताबेन के बारह वर्ष तक कोई संतान नहीं हुई। इस दौरान उन्होंने यथासंभव डॉक्टरों और नीम हकीमों को तो दिखाया ही, प्रदेश का शायद ही कोई धार्मिक स्थल था जहां मनौती नहीं रखी हो। अंततः संतान हुई। वह भी बेटा। नाम रखा हार्दिक। अकेली औलाद को मां-बाप ने पानी मांगे तो दूध देकर पाला-पोसा। हार्दिक के ग्यारहवीं कक्षा में पहुंचते ही शांताबेन ‘ऑफ’ हो गई। बचे महेशभाई, सो अब वे ही हार्दिक की मां, वे ही पिता। ताउम्र स्वयं बस से दफ्तर जाने वाले पिता ने कॉलेज जा रहे पुत्र को स्कूटर दिलवाया। थोड़े समय बाद ही महेशभाई सेवानिवृत्त हो गए, मगर बाप-बेटे के खर्च के लिए फंड और पेंशन पर्याप्त थे। हार्दिक पढ़ने में सामान्य ही था और दो वर्ष से बेरोजगार। इधर-उधर पता लगाने के बाद हार्दिक को विदेश (यानी अमेरिका) जाने की धुन सवार हो गई। लेकिन वहां नौकरी का जुगाड़, यात्रा का भाड़ा और एजेंट का कमीशन— पूरे दस लाख की चीख मचा रहे थे। पूरा फंड और शांताबेन के जेवरात बेचकर भी जब पूर्ति नहीं हुई तो पुत्र के आग्रह पर जिंदगी की बचत का इकलौता मंजर, पालडी का मकान भी गिनती में आ गया। और हार्दिक सचमुच एक नया गरम कोट पहनकर विचार की तरह अमरीका चला गया। वह डरढाघर (वृद्धाश्रम) यों तो महेशभाई का अत्यंत अस्थाई आवास होना था क्योंकि जल्द से जल्द हार्दिक उन्हें अमरीका बुला लेने वाला था लेकिन पूरे पंद्रह वर्ष पल-पल के हिसाब की तरह काटकर पिछले सप्ताह महेशभाई ने जिंदगी की आखिरी उड़ान उसी डरढाघर से भर ली। शुरू के कुछ महीने हार्दिक के फोनादि जरूर आए लेकिन छह-सात साल से सब कुछ बंद था। खबरों के मुताबिक हार्दिक बाकायदा महेशभाई-शांताबेन के वंश में बढ़ोत्तरी कर रहा है। मां-बाप की आत्मा शायद ‘वहां’ से भी हार्दिक के लिए कुछ नेक सोच रही हो, लेकिन मुझे तो सर्वेश्वर की कुछ पंक्तियां याद आ रही हैं- ‘धीर-धीरे अंधेरा आएगा/ और पसरकर मेरे पास बैठ जाएगा…./ धीरे-धीरे कुछ नहीं होता/ सिर्फ मौत होती है….’

यों यह अंधेरा उतना धीरे-धीरे भी नहीं आ रहा है।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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