‘नहीं, फोन पर तो सब नहीं बताया जा सकता है इसलिए बेहतर हो आप यहाँ आ जाएं… कितनी देर में आ सकते हैं… आधा घन्टे में… ओके’’ यह आवाज बिटिया के स्कूल की उप-प्राचार्या मिस मनिकम की थी, जिन्होंने मोबाइल पर अंग्रेजी में बात करने से पहले मेरे नाम और क्वीन मेरी स्कूल में नौंवीं कक्षा में पढ़ने वाली वृंदा का मेरी बेटी होना सुनिश्चित कर लिया था। उनकी आवाज में अजीब सा गाम्भीर्य था जो किशोरावस्था के पायदान पर खड़ी लड़की के पिता के भीतर किसी अन्देशे की तरह गढ़े जा रहा था। अपने जाने तो बिटिया का आचरण कम से कम संतोषजनक की श्रेणी में आता ही है लेकिन कहते हैं ना कि आजकल मां-बाप अपने बच्चों को जानते ही कितना हैं… क्या पता… किसी संगी साथी की सोहबत का असर… या अपने ही आवेग में कुछ… दफ्तरी उधेड़बुन में धंसी मेरी मानसिकता यकायक सदमा खाकर मामले के ‘अचानक स्वरूप’ को जानने के लिए उदिग्न हुए जा रहा थी कि तुरंत स्कूल आने की ताकीद ने उस पर रहस्यमयता का निर्मम लेप चढ़ा दिया। महानगर के लिहाज से दफ्तर से स्कूल ज्यादा दूर नहीं है मगर वह सफर खासा लम्बा साबित हो रहा था। अखबारों और चैनलों के जरिए दूसरों के साथ आए दिन होने वाले हादसे यकबयक प्रासंगिक होकर भड़भड़ाने लगे। पढ़ने में तो बिटिया वैसे भी प्रखर नहीं है, उस पर आज यह सब। ‘क्या’ का निर्वात भीतर किसी अनजान विकृति की शक्ल लिए जा रहा था। पूजा-पाठ न करने वाला व्यक्ति भी ऐसे मौकों पर दैवीय मदद की गुहार करने लगता है। तमाम अंधेरे ख्यालों को काँख में दबोचे मैंने किसी तरह उस सन्नाटे भरे बरामदे में प्रवेश किया जिसके आखिरी छोर पर मिस मनिकम का कमरा था। बेटी के हवाले से मैंने प्रवेश के साथ अपना परिचय दिया। ‘मामला सीरियस तो है मगर इतना भी नहीं… फिर भी मैंने सोचा कि आपकी नजर में नहीं लाया गया तो बात बिगड़ सकती है’ उनके शब्द बहुत राहत भरे लगे। इस दौर में किसी अप्रिय का न होना ही खुशी का बाइस होता है। मेरी जान में जान आयी। ‘क्या हुआ मैम, क्या किया इसने?’ मैं जैसे अभी प्रकट हुए अपने त्राता के साथ कदमताल करने को आतुर होने लगा। ‘दो-तीन बातें हैं… आज जब यह स्कूल आयी तो केश खुले हुए थे। चुटिया नहीं बनाई थी। मैंने टोका तो कहा कि केश गीले थे, पहली कक्षा से पहले बना लेगी’। ‘इसने नहीं बनाई?’’ मैंने कसूर पकड़ना चाहा। ‘नहीं बना ली थी’। ‘’फिर?’’ ‘आंखों में काजल लगा हुआ था’। आरोप से अधिक उनकी भंगिमा संगीन थी। अभी तक मैं उन्हें अपने मुक्ति-दूत की तरह देख रहा था इसलिए हंस नहीं पाया। कातर भाव से यही जोड़ा ‘काजल तो मैम आंखों के लिए स्वास्थ्यवर्धक होता है ना… बल्कि इस पीढ़ी से शिकायत है कि काजल लगाने को वह दकियानूसी मानती है’’। ‘लेकिन मत भूलिए कि इसे मेक-अप की तरह भी लगाया जाता है जिसकी स्कूल में छूट नहीं है’। उन्होंने स्वभावगत सख्ती से कहा। और तभी मैंने गौर किया कि उस स्थूलकाय श्यामली ने अपने मृगनयनों में जो ढेर सारी कालिख पोत रखी थी वह काजल लगाने की क्रिया के उदारवादी विस्तार से भी आगे का कुछ था।
‘लेकिन मैम दोनों में फ़र्क कैसे करते हैं?’ मैंने किसी अपराधी की तरह बचाब में रास्ता टटोलते हुए पूछा। ‘अनुभव से… हमें सब पता चल जाता है’। तब चूंकि चपरासी बिटिया को बुला लाया था इसलिए मामले में जिरह की गुंजाइश नहीं रह गयी थी। हांफती हुई बच्ची बाकायदा चुटिया किए हुए थी, काजल भी ऐसा नहीं कि गौर करने लायक हो। इस तरह अभिभावक को स्कूल में देखे जाने के मंतव्य से हर बच्चे के भीतर जो डर व्याप्त होता है, वह उसकी लरजती मुद्रा से साफ छलक रहा था।
‘लेकिन सबसे ज्यादा आपत्तिजनक बात जो इसने की, वो यह, कि आधी छुट्टी में ग्राउंड में खेलते हुए इसने मुझे देखा था मगर इसके बाद भी ‘सॉरी’ कहने नहीं आयी’। हम पिता-पुत्री संयुक्त रूप से, न किए गए उस संभावित अपराध की टोह लेने में लगे थे कि उन्होंने हमारी परेशानी का निवारण कर दिया ‘इसे कोई डर ही नहीं है… कि हम हैं… हम कुछ कर सकते हैं…’। ज्ञान के मंदिर के बीचोंबीच उनकी बात ने एक तल्ख झनझनाहट के साथ पूरे तंत्र का मानो बीज-सूत्र थमा दिया। ज्ञान, शिक्षा और विवेक जैसे तत्वों के लिए दीक्षित करने वाली यकीनन कई खूबियों से लैस हमारी शिक्षा पद्धित अपने शागिर्दों में ‘डर’ को प्रथमतः एक मूल्य की तरह अवस्थित देखना चाहती है। अपनी रौ में वे बहुत कुछ समझाने निकल पड़ी थीं जिस पर ध्यान देने का अर्थ होता उनसे असामयिक मुठभेड़ करना। ‘अभी यह सब करेगी तो आगे कॉलिज में करने को क्या बचेगा?’ कहकर उन्होंने मामले का हिदायतन पटाक्षेप किया जिसके बाद हम बाप-बेटी आइन्दा इस तरफ सचेत रहने का वायदा करके रुखसत तो कर गये मगर ‘पूरे पागलपन’ पर मुस्कुराए बगैर नहीं रह सके।
मेरा ‘डर’ अब यही है कि आगे इस ‘हादसे’ की पुनरावृत्ति हुई तो वैकल्पिक स्कूल की व्यवस्था करनी पड़ेगी।
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