Oma Sharma's Blog
  • मेरी किताबें
  • मेरी समीक्षाएं
  • कहानी
  • लेख
  • रचना प्रक्रिया
  • मेरी किताबों की समीक्षाएं
  • Diaries
  • Interviews Taken
    • Interviews Given
  • Lectures
  • Translations

कौन रोता है!

May 08, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

अगर ये दोनों अनुभव किसी आकस्मिकता के तहत दो-चार रोज के अंतराल में ही न घटित हुए होते तो संभव था कि मेरा ध्यान आकर्षित ही नहीं होता। मगर ऐसा हुआ। पहले, पहला वाकया।

घर पर काम करने वाली कलाबेन ने जब अपनी ठेठ गुजराती में मुझसे यह बात कही तो पहले मुझे हैरत ही हुई। क्या कहा तुमने, तुम्हें अपने ननदेऊ के भाई के देहावसान में नहीं, रोने में जाना है? क्या रोने का भी दिन-समय पहले से मुकर्रर है? लेकिन जब उसने कही कि उसकी ‘जात’ में ऐसा ही होता है तो मेरी हैरत तो अलविदा कर गई मगर चेहरे पर मुस्कुराहट की लकीरें उभरने लगीं। क्या रोना इतना नाटकीय, अप्राकृतिक और यंत्रवत् ‘आयोजन’ होता है कि उसे किसी भी उपलक्ष्य में धारण करने के लिए घड़ी देखकर काम चलाया जा सकता है? मैंने सोचा। पूछा भी लगभग वैसा ही कुछ। मगर उसके सीधे-सपाट उत्तर ने मुझे जकड़ लिया। क्यों नहीं हो सकता साब? हो सकता है… बरसों से हो रहा है। हमारे यहां ऐसे ही होता है। सब ‘माणस’ लोग मिल-बैठकर जब दिवंगत की यादें ताजा करते हैं तो हरेक की भावनाएं ताजा होने लगती हैं। कोई जबरदस्ती या जानबूझकर थोड़े ही होता है वहां। मगर रोना आ ही जाता है। एक जीता-जागता, हाड़-मांस का इंसान, जो कल तक हमारे बीच हंस-बोल रहा हो, नहीं रहा… बचती हैं तो उसकी यादें। और यादों से भी अधिक गमगीन उसकी पत्नी और बाप के प्यार भरे स्पर्श को टटोलने के लिए भटकते अबोध निरीह बच्चे। जाने वाले के लिए ही नहीं, जो दुनिया उसके जाने से उजड़कर छितर गई है, उसे देखकर भी कम रोना नहीं आता। मौत का भी कोई भरोसा है साब। जो हादसा एक रिश्तेदार के यहां हुआ, किसी के साथ भगवान न करे हो, मगर हो तो सकता है। कोई जरूरी है कि वह हमारे साथ हो तभी उसका एहसास है। दुख क्या होता है। इसे तो इंसान होने के नाते महसूस किया जा सकता है। तभी तो रोना आता है।

कलाबेन बिना रुके अपनी संवेदना के विश्वास के सहारे ऐसा ही कुछ बताती रही। मेरे चेहरे की उपहास-मिश्रित भंगिमा को गालिबन उसने पढ़ लिया था, तभी पर्याप्त विस्तार और बारीकी से अपने सरोकारों को स्पष्ट कर रही थी। मुझे लगने लगा कि कहीं न कहीं मैं गलत और वह सही सिद्ध होती जा रही है। अपने किसी दूर के संबंधी से भी मानवीय स्तर पर ऐसा लगाव। ‘रोने जाना’ जैसे असंगत नाम वाले आयोजन में दरअसल कुछ वर्ग विशेषों में मौजूद मानवीय धड़कन का ही स्पंदन समाया होता है। उस रूप में सोचें तो क्या यह सच नहीं है कि साहित्य का मकसद भी संवदेना को ऐसे कुरेदना और तल्ख करना है ताकि आदमी का आदमी से जुड़ाव हो सके। लगाव बढ़े। कितना मुश्किल होता जा रहा है यह दिनों-दिन!

दूसरा वाकया अपने एक सहकर्मी की ‘सिरोसिस’ के कारण हुई मृत्यु का है। कोई पैंतालिस वर्ष की उम्र में ही उसे ‘होनी’ ने छीन लिया। बेहद कद्दावर और जीवंत शख्सियत। सूचना पाते ही हम कुछ मित्र लोग पहले अस्पताल और फिर उसके घर की तरफ दौड़े। घर का माहौल बेशक गमगीन था लेकिन ठिठुरते वृद्ध पिता के सिवाय किसी अन्य के चेहरे पर आंसू का नामोनिशान नहीं। घर की कई औरतें स्लीवलेस ब्लाउज और ‘मौके’ के अनुरूप दूधिया रंग की साड़ियां पहने बनी-ठनी थीं। मृतक को कफन में लपेटने से लेकर अग्नि में विलीन कर दिए जाने तक सब कुछ पूरी ‘सभ्यता’ और खामोशी से चलता रहा। गोया वह जीते-जी कोई अवांछित तत्व रहा हो अथवा आदमी न होकर कुछ और रहा हो। जिस वर्ग से संबंधित यह वाकया है, वह शहरी उच्च मध्यवर्ग कहलाने लायक है। मृत्यु पर किसी गगनभेदी, हृदय विदारक और नाटकीय चीख-रुदन का मैं भी कतई पक्षधर नहीं हूं। जो हो गया सो गया। लेकिन यह बात रह-रहकर मुझे स्तब्ध किए जाती है कि मृत्यु पर आंखों का नम होना क्या वाकई एकाएक अप्रासंगिक और पुरातन हो गया है। क्या ऐसा नहीं हो रहा है कि हंसने की तरह रोना कोई मानवीय कृत्य ही नहीं रह गया है? बीसीयों वर्ष सुख से बिताई पत्नी की आंखें मृतक पति को देखकर भी क्यों शुष्क और सपाट बनी रहती हैं? पति की मृत्यु पर एक भी आंसू जाया न करने का यह उपक्रम वैसा कतई नहीं है जैसा अंग्रेजी कवि टैनिसन की कविता ‘होम दे ब्रॉट हर वारियर डेड’ की सैनिक विधवा का है। वहां दुख के वीभत्स ने कुछ पलों के लिए (उसके बच्चे को गोदी में पकड़ाए जाने तक) उसके आंसू सोख लिए थे। लेकिन यहां तो ऐसा कुछ भी नहीं है। सब कुछ बहुत सचेत होकर या आदतन किया जा रहा था। नेहरू ने सोच-समझकर इसी उच्च वर्ग को संबोधित करते बहुत पहले कहा था- ‘वी नेहरूज़ डोंट सॉब इन पब्लिक’। इसी तर्ज पर एक वर्ग विशेष के बहुतों को लग रहा है कि रोना वस्तुतः बहुत टुच्ची या टुच्चे होने की हरकत होती है। कौन ‘समझकर’ रोता है? यह उत्तर-आधुनिक समय है। मालो-असबाब से भरे बाजार के बरक्स जश्न मनाने का समय। इस समय जब आंखों पर चढ़ाने के लिए तरह-तरह के और महंगे आयातित गौगल्स और लगाने के लिए पचासों तरह के सुरमे और लाइनर उपलब्ध हों तो फिर बेकसूर आंखों में नमी की गुंजाइश बचती ही कहां है? आंसू इंसान को कितना दकियानूस बना देते हैं! कोई देख ले तो क्या ‘इमेज’ रह जाए!

कथाकार-कवि उदय प्रकाश की 1989 में दिल्ली को रूपक बनाकर लिखी कविता बरबस याद आती है- ‘खासियत है दिल्ली की/कि कपड़ों के भी सूखने से पहले/सूख जाते हैं आंसू’।

और पिछले वर्षों में तो अपने दिल्लीनुमा समाज ने न जाने कितनी लूएं बर्दाश्त कर ली है।

Posted in Essays
Twitter • Facebook • Delicious • StumbleUpon • E-mail
Similar posts
  • चित्रकार जे.पी. सिंघलः कुछ यादें
  • ग्लोबलाइज़ेशन
  • हिंसा-अहिंसा के दायरे
  • अंग्रेजियत की अफीम
  • कीर्तिमान के पीछे
←
→

No Comments Yet

Leave a Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *



Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

Books On Amazon

अन्तरयात्राएं वाया वियना 20160516_145032-1 अदब से मुठभेड़

Recent Posts

  • अहमदाबाद दूरदर्शन(डीडी-गिरनार) के कार्यक्रम ‘अनुभूति’ लिए विनीता कुमार की ओमा शर्मा से बातचीत:
  • पत्रों में निर्मल
  • कथाकार ओमा शर्मा से युवा आलोचक अंकित नरवाल के कुछ सवाल
  • संवेदन आवेग का अनुवाद : स्टीफन स्वाइग की कहानियां
  • देश-विदेश की कतरनें मार्फत ‘अन्तरयात्राएं : वाया वियना’

Pure Line theme by Theme4Press  •  Powered by WordPress Oma Sharma's Blog