जब मैंने पहली बार प्रेमचंद को पढ़ा
इसे एक पहेली ही माना जाना चाहिए कि स्मृति पर इधर पड़ते उत्तरोत्तर निर्मम प्रहारों के चलते जब सुबह तय की गई कोई जरूरी बात शाम तक मलिन और पस्त हालत में बच जाने पर राहत और हैरानी देने लगी है तब, प्रेमचन्द की ‘ईदगाह’ कहानी के तन्तु 34-35 वर्ष बाद कैसे जेहन में बचे पड़े रह गए हैं? कक्षा सात या आठ की बात रही होगी। कोर्स में ‘ईदगाह’ थी। तब हमें न तो कविता कहानी से कोई वास्ता होता था न उसके लेखक से। खेती-क्यारी करने के बीच पढ़ाई ऐसा जरूरी व्यवधान थी जिसमें खेती-क्यारी से मुक्ति की संभावनाएं छिपी थीं। परीक्षा में, ज्यादा नहीं, ठीक-ठाक नम्बर मिल जाएं। बाकी लेखक या उसके सरोकारों से किसी को क्या वास्ता ? होते होंगे किसी परलोक के जीव जो पहले तो लिखते हैं और फिर अपने लिखे से दूसरों पर बोझ चढ़ाते हैं। पता नहीं किस परम्परा के तहत लेखक की लघु जीवनी सी रटनी होती थी ….. आपका जन्म सन अलाँ-फलाँ को अलाने प्रदेश के फलाने गाँव में हुआ, आपकी शिक्षा बीए-सीए तक हुई, आपकी प्रमुख कृतियों के नाम हैं … आपकी रचनाओं में तत्कालीन समाज की झांकी प्रस्तुत होती है। सन इतने में आपका निधन हो गया …।
सारी विद्या चौखटेबद्ध और रटंत।
इसी सब के बीच जब प्रेमचंद की ‘ईदगाह’ पढ़ी तो पहली बार ऐसा आनन्द प्राप्त हुआ जो पढ़ाई से सरासर अनपेक्षित था। नाम और परिवेश ही तो कुछ अलग थे वर्ना सब कुछ कितना अपना-अपना सा था। हिन्दू बहुल हमारे गाँव में मुस्लिम परिवार चार-छह ही थे मगर दूसरे भूमिहीनों की तरह पूरी तरह श्रम पर आश्रित और इतर समाज में घुले-मिले। विनय और शील की प्रतिमूर्ति। लिबास और चेहरे-मोहरे से थोड़ा मुसलमान होने का शक पनपे अन्यथा जुबान में भी वैसा जायका नहीं था। गाँव में मस्जिद नहीं थी इसलिए ईद के रोज तीन कोस दूर बसे कस्बे ‘पहासू’ जाना पड़ता था। उसके सिमाने पर अजल से तैनात एक भव्य, भक्क सफेद मस्जिद गाँव से ही दिखती थी। इसी के बरक्स तो लगा कि ईदगाह हमारे गाँव के हमारे साथ खेलते-कूदते अकबर, वजीरा, बशीरा या अहमद खाँ की कहानी है। यूँ हमारे गाँव में बृहस्पतिवार के दिन साप्ताहिक हाट लगती थी जिसमें हम बच्चों को पड़ाके (गोल-गप्पे), चाट-पकौड़ों के साथ प्लास्टिक के खिलौने देखने-परखने को मिल जाते थे मगर कस्बे के लाव-लश्कर, तड़क-भड़क और भीड-भड़क्के के मुकाबले वह सब नितान्त फीका और दोयम था। एक अकिंचन परिवार के प्रसंग से शुरू होकर ‘ईदगाह’ उसी कस्बे की रंगत में गो उंगली पकड़कर हामिद के साथ मुझे सैर कराने ले गई … रास्ते में आम और लीचियों के पेड़, यह अदालत है, यह कॉलेज, हलवाइयों की दुकानें, पुलिस लाइन… हरेक का स्पर्शरेखिक संदर्भ देकर कहानी अपने उदात्त मकाम की तरफ इस सहजता से आगे बढ़ती है मानों उसे अपने पाठकों पर पूरा यकीन हो कि उसके संदर्भों को वे अपनी तरह से जज्ब करने को स्वतंत्र रहेंगे। कुछ हद तक कहें तो यहाँ बात ईद या ईदगाह की नहीं है; वह तो जैसे एक माध्यम है, ग्रामीण कस्बाई समाज के संदर्भों को उकेरते हुए एक मूलभूत मानवीय रचना को पैबस्त करने का। ईद यानी उत्सव।
कोई तीज-त्यौहार निम्न-मध्य वर्गीय समाज में कितनी उत्सवधर्मिता के साथ प्रवेश करता है, उसकी कितनी बाह्य और आन्तरिक छटाएं होती हैं, यह हम कहानी पढ़ते हुए लगातार महसूस करते रहे। ”सालभर का त्योहार है” जैसे जुमले-फलसफे की अहमियत अन्यत्र नहीं समझी जा सकती है। उसी के साथ अमीना का मन जब बेसबब आ धमकी ‘निगोड़ी ईद’ से ‘मांगे के भरोसे’ के साथ दो-चार होता है तो वह सारा परिवेश अपनी उसी शालीन क्रूरता के साथ पेश हो उठता है जिससे हमारा गाँव-समाज किसी महामारी की तरह आज भी पीड़ित है। आज की स्थितियों के उलट उस कैश-स्टार्व्ड दौर में मेरा मन हामिद के साथ एकमएक होते हुए उन तमाम बाल-सुलभ लालसाओं और प्रतिबंधित आकर्षणों से मुक्त नहीं हो पाता था जिसके संदर्भों के विपर्यास के बतौर कहानी आकार लेती है। आपातकाल से जरा पहले के उस वक्त में एक या डेढ़ रुपए (जो पचास वर्ष पूर्व हामिद के तीन पैसे ही बनते) के सहारे पूरे बाजार का सर्वश्रेष्ठ निगल डालने की हसरत कितने असमंजसों और ग्लानियों का झूला-नट बनती होती थी, उसे याद करके आज हंसी और कंपकंपी एक साथ छूटती है। दस पैसा के तो खांगो पड़ाके, पच्चीस पैसा में मिलंगी दो केला की गैर (‘गैर’ आज कौन कहता है ?) पचास पैसा को कलाकन्द, पच्चीस पैसा की गुब्बारे वाली पीपनी, गाँव में हिंडोला कहां आवे है सो एक चड्डू तो… और एक चिलकने का चश्मा।
ठहरो ठहरो मियां, बजट बिगड़ रहा है।
क्या करूं, किसे छोड़ूं ?
चलो, केला केन्सिल।
नहीं, नहीं एक तो ले लूं।
मगर वह नामुराद एक केला के पंद्रह पैसे ऐंठता है। साढ़े बारह बनते हैं, भाई तू तेरह ले ले। खैर कोई बात नहीं, अपन के पास कभी ढेर सारे पैसे हुए न तो दोनों टैम केले ही खाया करूंगा। तंगहाली में ये जुबान मरी कितनी चुगली करती है। रेवड़ी भी चाहिए, गुलाब-जामुन और सोहन हलवा भी। बाल-मन के कितने भीतर तक घुसा है यह तिकौनी मूंछों वाला लेखक। हामिद से चिमटा जरूर खरीदवा लिया है मगर इतने सजे-धजे बाजार में लार तो उसकी जरूर टपकी होगी। लिखा ही तो नहीं है बाकी जो पंक्तियों के बीच से झांक रहा है, वह कुछ कम बयान कर रहा है।
कक्षा में जब कहानी खत्म हुई तो मास्साब ने पूछा : कहानी का शीर्षक ‘ईदगाह’ क्यों है ? ये क्या बात हुई मास्साब। लेखक को यही शीर्षक अच्छा लगा इसलिए। नहीं। यह ईदगाह में आकर ईद मनाते लोगों के बारे में है, इसलिए। नहीं, यह हमारे भीतर ईदगाह सी पाक और मजबूत भावनाओं के बारे में है जो तमाम अकिंचन और विषम परिस्थितियों के बीचोंबीच रहकर भी अपना वजूद नहीं खोने देती है। कभी मरती नहीं है, हारती नहीं है। यही हैं प्रेमचंद। अमीचन्द – मास्साब बिल्कुल सही कह रहे हैं सतपाल। अरे सतपाल, एक बात कहूँ। ये जो लेखक है ना प्रेमचंद, इनकी शक्ल गाँव के हमारे बाबूलाल ताऊ से एकदम मिलती है। कसम से।
किताबों की दुनिया में जीवन के अक्स निहारती उस कच्ची उम्र में बाबूलाल ताऊ की भूमिका अपनी जगह बनाती जा रही थी। हमारे जीते जी मानो सदियों से वे वह एकसा, खरहरा जीवन और जीवनचर्या पहने चले आ रहे थे … कमर में कमान सा झुकाव, बिवाइयाँ जड़े चपटे निष्ठुर पैर, खिचड़ी बेगरी दाढ़ी और चलते समय बाजुओं का बैक-लॉक। बोली में हतकाय-हतकाय यानी इसलिए के आदतन बेशुमार प्रयोग के बावजूद बाबा आदम के समय से चले आ रहे उनके किस्सों में हमें भरपूर कथारस और रोमांच मिल जाया करता था।
एक रोज उन्होंने हीरा-मोती नाम के दो बैलों की कथा छेड़ दी … कि कैसे वे मन ही मन एक दूसरे की बात समझ जाते थे, अपने मालिक (झूरी) से कितना प्यार करते थे, कैसे उन्होंने किसी दूसरे (गया) के घर पानी-सानी ग्रहण करने से इन्कार कर दिया, कैसे एक बिजार (सांड) के साथ संगठित होकर लड़े, कैसे सींग मार-मारकर मवेशी खाने की दीवार में छेद करके छोटे जानवारों को मुक्ति दिलाई और कैसे वे वापस अपने ठीये पर लौट आए। रवायती अन्दाज के बावजूद लगा कि ताऊ ने इस बार कुछ अलग और ज्यादा अपनी सी कहानी सुनाई है। फितरत मासूमियत और तेवर के स्तर पर यह कहानी दो बैलों की है या दो बच्चों की ? या अभावों-पराभवों के बीच उम्र गुजारते उन तमाम निरीह असंख्यों की जिन्हें नियति और मूल्यों पर भरोसा है मगर जिनका वजूद हीरा-मोती जैसे बेजुबानों सा है। जिन्दगी जिन्हें दर रोज के हिसाब से दुलत्ती जड़ती है और जिसे किस्मत का लेखा समझकर वे कबूल करते चलते हैं। यह निराशावादी नहीं, जीवन को उसके नग्न यथास्वरूप में स्वीकार करने का फलसफा है। ”पड़ने दो मार, बैल का जन्म लिया है तो मार से कहां तक बचेंगे” यह मानो हीरा नहीं मास्टर हीरालाल कह रहे हैं जो विवाह के सात वर्ष बाद विधुर हो गए और कुछ वर्ष बाद जब दूसरा विवाह किया तो पहले विवाह से उत्पन्न बड़ा लड़का घर छोड़कर भाग गया। मालकिन की लड़की से उन्हें हमदर्दी है कि कहीं खूंटे से भगा देने के इल्जाम में सौतेली माँ से न पिटे। लड़ाई में जब सांड बेदम होकर गिर पड़ा तो मोती उसे और मारना चाहता है मगर हीरा की बात कि ”गिरे हुए बैरी पर सींग नहीं चलाना चाहिए” ग्रामीण और महाभारतीय संस्कारों के आगोश में वॉइस ऑफ सेनिटी की तरह फैसलाकुन हो जाती है। ग्लोबलाइजेशन और उससे जुड़ी सांस्कृतिकता से कोसों पहले के उस साठोत्तरी काल और अपने लड़कपन के उस दौर में श्वेत-श्याम मानसिकताओं के पहलुओं को रेखांकित-दर्ज करती इस कहानी में बाद में पता लगा लेखकीय आदर्शवादी यथार्थ चाहे भले हो मगर मिथकीय पात्रों के बावजूद यह कहानी के उस सर्वप्रमुख गुण यानी पाठकीय कौतूहल की भरपूर आपूर्ति करती जा रही थी जो इन दिनों लिखी जा रही अनेक कहानियों में पुरानी शुष्क गांठ की तरह अटकता है। कहानी की शुरूआत में गधे और सीधेपन को लेकर जरूर संक्षिप्त आख्यान सा है मगर वह इंजैक्शन लगाने से पूर्व स्प्रिट से त्वचा को तैयार किए जाने जैसा ही है। और भाषा तो ऐसी कि बच्चा पढ़े तो सरपट समझता जाए और बूढ़ा पढ़े तो उसके काम का भी खूब असला निकले। खुदरा वादों-विवादों की किस दौर में कमी रही है, लेकिन अपने रचे-उठाए पात्रों और उनकी स्थितियों को लेकर कहानीकार की निष्ठा अडिग तरह से पवित्र और सम्पन्न खड़ी दिखती है।
आदर्शोन्मुखी नैतिकता की चौतरफा मंडराती हवा में दूसरी शक्ति कदाचित फिर भी नहीं होती कि खेत-खलिहान और ढोर-डंगरों को सानी-पानी देने के बीच मिले अवकाश में पाठ्यक्रम के अलावा कुछ और पढ़ने को विवश हो जाते (मानस का गुटका और ‘कल्याण’ के अंक इसकी चौकसी में तैनात थे) बशर्ते कि उस ‘पढ़ाई’ में आनन्द का इतना स्वभावगत पुट न होता कि प्रेमचन्द नाम के महाशय की जो कहानी जब जहां मिल जाए मैं उसे निगल डालने को लालायित रहता। ‘पंच-परमेश्वर’, ‘बूढ़ी काकी’, ‘पूस की रात’, ‘दूध का दाम’, ‘मंत्र’ और ‘ठाकुर का कुआँ’ जैसी अनेक कहानियाँ उस सिलसिले में चिन दी गईं।
उपन्यास जरूर देर से पढ़े, लेकिन कोर्स में कोई था ही नहीं। और लाइब्रेरी जैसी चिड़िया तो दूर-दूर तक नहीं थी।
प्रेमचन्द की कहानियों को लेकर एक आदिम अतृप्ति भाव तो अलबत्ता आज भी बना हुआ है।
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