एक जेल में वर्षों से खूंखार कैदी सजायाफ्ता थे और जैसा कि होता है, कैदियों का दुरूह जीवन बिता रहे थे। एक दिन जेल में हुक्म आया कि कुछ नए कैदी आने वाले हैं। क्योंकि जेल का आकार सीमित था, सूचना थी कि नयों को जगह देने के लिए पुरानों को छोड़ दिया जाएगा। इस आदेश की जानकारी जब उन कैदियों को मिली तो बजाय खुश होने के वे स्तब्ध रह गए। कारण था कि चोरी, डकैती, हत्या, फरेब, बलात्कार और लूटमार सहित कोई अपराध नहीं था जो उन्होंने सरेआम न किया हो। लेकिन क्या जुल्म कि कानून उन्हें रिहा करके किसी और को बंदी बना रहा था। उन्हें इस बात पर हैरत थी कि जुल्म की दुनिया का सिरमौर उन्हें नहीं, किसी और को माना जा रहा है। वे दोयम थे, अव्वल कोई और था। इसी भ्रमपूर्ण जिज्ञासा ने उनकी नींद उड़ा दी। आखिर कौन है जो उनका भी ‘गुरु’ है? उनसे बड़ा अपराधी, उनसे अधिक खूंखार…
ये कैदी थे ईसा मसीह और उनके समर्थक!
कुछ दिनों पहले कथाकार-संपादक राजेन्द्र यादव से मुलाकात हुई तो स्वीडी लेखक पार लागरक्विस्ट के 1942 में प्रकाशित उपन्यास ‘बाराबास’ की कथा के बारे में ऐसा ही कुछ उन्होंने कहा था। मुद्दा था लेखक–और वह भी बड़े-बड़े–की समाज में सिकुड़ती हुई पहचान का। ‘‘जानते हो इस लेखक को नोबेल पुरस्कार भी मिल चुका है फिर भी आज शायद ही कोई इसे जानता है जबकि वह बहुत ही अद्भुत और दिलचस्प लेखक है।‘’ राजेन्द्र यादव(या उनके जैसे ही आधा दर्जन दूसरे वरिष्ठ लेखक) जैसी चलती-फिरती-बोलती लाइब्रेरी ने बैठे-बिठाए ही हमारी पीढ़ी को जो साहित्यिक संस्कार दिए हैं, किताबों की अद्भुत दुनिया में जो पैठ कराई है उसे रेखांकित करने के लिए यह उदाहरण पर्याप्त है। समकालीनता की जद से परे हटकर पढ़ने और देखने वाले भारतीय लेखकों की गिनती करना मुश्किल कार्य नहीं है। समकालीन साहित्यिक परिवेश में एक नया लेखक रोलां बार्थ से लेकर देरिदा के घटाटोप तक ही सिमटकर रह जाता है। उसे लगता है कि समकालीनता की मांग भरने के लिए पहले उसे इन्हीं से मुठभेड़ करनी चाहिए। यह पता लगाना चाहिए कि उत्तर-आधुनिकता में विखंडनवाद के अलावा और क्या-क्या है, उत्तर-आधुनिकता वामपंथ की विरोधी है या पक्षधर, यदि पक्षधर है तो हर रोज का बवेला क्यों मचा रहता है? इन प्रश्नों की तह तक यदि नहीं पहुंचा गया तो वह साहित्यिक अशिक्षित ही रह जाएगा। जाहिर है, इस मानसिकता में रहकर वह साहित्य का रसिया न होकर उसके तानपुरे को ढोने वाला बौद्धिक कुली ही बनकर रह जाता है। और यहीं पर राजेन्द्र यादव (उनकी तमाम वैचारिक या व्यक्तिगत प्रतिबद्धता से असहमति रखते हुए) जैसे लोगों की जमात एक बहुत बड़े वर्ग को रोशनी दिखाने का काम करती प्रतीत होती है।
दूसरी तरफ हमारी तथाकथित लाइब्रेरियां हैं जो पुस्तकों का संचय तो करती हैं; ज्ञान का संवर्धन नहीं और न ही उनके प्रबंधकों को दरकार है कि किसी पाठक को कम से कम तकलीफ देकर पुस्तकें मुहैया कराएं। हमारे प्रमुख पुस्तकालयों में अद्भुत पुस्तकें हैं (शुक्र है उन्हें निकाल बाहर करने योग्य नहीं समझा गया है अभी) लेकिन उन्हें रैक से उठाने का मतलब है दो-चार छटांक धूल फांकना। पुस्तकों की इस व्यवस्था को किताब गोदाम कहना ज्यादा उपयुक्त होगा। पुस्तकें अपने स्थान पर हों तो यह करिश्मा ही मानिए। कई जगह तो पाठकों को पुस्तकों के चयन की सुविधा नहीं है। आप पुस्तक का नाम, लेखक, क्रमांक आदि की स्लिप भर दीजिए और दो दिन बाद पता कीजिए। इन दो दिनों चूंकि संबंधित व्यक्ति छुट्टी पर रहा होगा इसलिए…। किसी तरह पुस्तक मिल भी जाए तो उसके महत्वपूर्ण अंश गायब होने की संभावना को कम मत आंकिए। दिल्ली की ही रतन टाटा लाइब्रेरी के बाहर मात्र 35 पैसे की दर से जीरॉक्स की सुविधा के बावजूद पुस्तकों का फटना कम जरूर हुआ हो, बंद नहीं हुआ है। इस मामले में ब्रिटिश काउंसिल या अमेरिकन सेंटर की व्यवस्था स्पृहणीय है। आश्चर्य बस यही होता है कि ‘अपनी’ लाइब्रेरियों में जो भारतीय कर्मचारी ऊंघते रहकर समय काटता है वही इन पुस्तकालयों में पूरी सक्रियता और शालीनता से मुस्कराकर आपकी मदद के लिए कैसे तत्पर रहता है। अपने विदेशी आकाओं को तो वह अच्छा भारतीय होने का सबूत दे सकता है (अन्यथा नौकरी को ही खतरा तो नहीं!) पर स्वदेशी नियोक्ताओं या पाठकों की उसे परवाह नहीं।
हालांकि रंगनाथन जैसे भारतीयों के कारण ही पुस्तकों की व्यवस्था एक विज्ञान के रूप में उभरकर आई है लेकिन व्यक्तिगत ‘योगदान’ से सब कुछ को ठेंगा दिखाया जाता है। स्टीफन स्वाइग की महत्वपूर्ण पुस्तक ‘मेंटल हीलर्स’ गुजरात विद्यापीठ लाइब्रेरी के न साहित्य के खाने में है, न मनोविज्ञान के–इसे औषधि की पुस्तक के रूप में वर्गीकरण मिला है। इसे मैं अपनी नादानी ही कहूंगा कि ‘द सेंकड सेक्स’ की उपलब्धता के बारे में मैंने एक लाइब्रेरियन से पूछा तो मुझे लगभग दुत्कारते हुए बोले, ‘हमारी लाइब्रेरी में सेक्स-वेक्स की किताबें नहीं होती… हमारा भी कुछ स्टैंडर्ड है…।’
मैं ही गलती पर था, यह कहने की आवश्यकता न थी।
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