रोमा रोलां, रिल्के और दूसरे समकालीन क्लासिकल यूरोपियन लेखकों पर अपने संस्मरण लिखते वक्त एक लेखन ने उस दौर में उन जैसों की उपस्थिति-मात्र पर खुशनसीबी जतलाते हुए एक आशंका भी व्यक्त की थी कि क्या भविष्य में कभी ऐसे लेखक दोबारा जन्म लेगें?…. प्रतिभावान, सादगी भरे, शोहरत से कोसों दूर, असुविधाओं में फँसे मगर फिर भी अपने काम में निमग्न… समय-समाज की आत्मा को अपनी रचनात्मकता का हिस्सा बनाती ऐसी संवेदना अभिव्यक्त करते जो मनुष्य को न सिर्फ उसके अस्तित्व का अहसास कराए बल्कि उसका संबल भी बने…। उस टिप्पणी को अपने संदर्भों में लागू करते वक्त, अपनी भाषा के सम्माननीय लेखकों की निजता और रचनात्मकता के बरक्स, मुझे कथाकार संजीव की याद ही अनायास सर्वाधिक आई। यह इत्तफाक न था।
एक लेखक के रूप में संजीव के नाम और कहानियों से तो मेरा परिचय था मगर उनसे संवाद का सिलसिला बना सन 1997 में। ‘कथादेश’ में उनकी ‘मानपत्र’ के प्रकाशन पर मैंने उन्हें एक पोस्टकार्ड डाला था, थोड़ा स्मरण दिलाते हुए कि बहुत पहले कभी मैंने उनकी ‘अपराध’ भी पढ़ी थी। उसका तुरंत खत आया, प्रसन्नता जाहिर करते हुए कि मैं उनकी रचनाओं से प्रभावित रहा हूँ। हर कहानी के बाद कुछ पाठकों के साथ चंद हफ्तों की जिस तात्कालिकता का जो रिश्ता बनता है यह भी उसी तरह का था। और उसी की तरह बात आई-गई हो गई… जब तक कि जनवरी-2000 के पहले सप्ताह में उनका एक खत नहीं आ धमका। इस बार पोस्टकार्ड नहीं लिफ़ाफा था जिसे नववर्ष के पहले रोज ही लिखा गया था। ‘सर्क्यूलेशन’ के हिसाब से उन दिनों मेरी दो कहानियाँ सद्य-प्रकाशित थीं– ‘पहल’ में ‘काई’ और ‘पल प्रतिपल’ में ‘मर्ज’। यह तो अब जग-जाहिर है कि हिंदी समाज में पाठकीय-लेखकीय प्रतिक्रियाओं का संवाहक पोस्टकार्ड होता है, लिफाफा नहीं। खत के मजमून में उक्त दोनों कहानियों का कोई जिक्र भी नहीं। जिक्र था, कोई डेढ़-दो बरस पहले ‘कथादेश’ में प्रकाशित ‘भविष्यदृष्टा’ कहानी का। इस कहानी पर मुझे खूब खत मिले थे मगर इतने अंतराल के बाद, लंबी कहानी विधा का सिद्धिहस्त लेखक कहानी के रेशे-रेशे को पकड़कर, पहल करके हौसला अफजाई करे, यह तो कल्पनातीत था। वरिष्ठ लेखकों के बीच अपनी रचनाओं के प्रकाशन के मेरे अनुभवों का अभी तक का निष्कर्ष यही था कि युवा लेखकों का यह परमधर्म है कि वरिष्ठ लेखकों ही हर रचना पर वे गर्मजोशी से उत्साहपूर्ण प्रतिक्रिया प्रेषित करें। वरिष्ठ लेखकों से किसी पंक्ति की भी उम्मीद बेमानी है। उनका बड़प्पन उनकी चुप्पी में निहां होता है।
मगर संजीव ने तो पूरी अवधारणा ही ध्वस्त कर दी। संवाद के उसी शैशवकाल में मुझे हुमक सूझी कि काश मेरे पहले कहानी संग्रह–जिसे आधार प्रकाशन को देने की डैडलाईन सिर पर थी– का ब्लर्ब संजीव लिखें! मेरी चाहत थी कि कहानियों के पक्ष-विपक्ष की बजाए वे उनके किसी संभावित केंद्रीय स्वर या कोण पर शीघ्र ही अपने विचार अभिव्यक्त कर दें। सुदामा कृष्ण से नंदगांव ही नहीं, तमाम गैया-बछियाओं को भी माँगने की हिमाकत कर रहा है!
और क्या करिश्मा! सातवें रोज उनके हाथ का लिखा एक दुपन्ना तो मेरी डाक में भी हाजिर हो गया। खुशी के उफान में मैंने हैरान होकर उन्हें फोन किया कि दादा इतनी जल्दी आपने ब्लर्ब लिख दिया। ‘‘लेकिन आपने लिखा था ना कि आपको जल्दी चाहिए था’’ उन्होंने निर्व्याज कहा। उनकी सहृदयता का मैं कायल हो गया क्योंकि आज के दौर में लेखक होने के दबाव को मैं समझता हूँ। परिवार और नौकरी आपका पूरा समय चूसने के लिए कम नहीं होते हैं। लेखक होने का मतलब है न सिर्फ ढेर सारी पत्र-पत्रिकाओं और पुस्तकों में अपना समय देना बल्कि लगातार ही किसी कच्ची-पक्की रचना की कशमकश में उलझे रहना। मेरे जैसा नौसिखिया जब इस सबसे इतना ग्रसित रहता है तो संजीव जैसे लेखक के दबावों को तो आसानी से समझा जा सकता है। यह पहला वाकया था जब मुझे उनकी मनुष्यता की विराटता की गंध मिली। मगर अभी ऐसे कई वाकये बकाया थे।
इत्तफाकन वर्ष 2001 के ‘संगमन’ की वार्षिक गोष्ठी के आयोजन का दायित्व मुझ पर आ गया। कथाकार मित्र प्रियंवद, शिवमूर्ति,गिरिराज किशोर और अमरीक सिंह दीप के साझा प्रयासों से देश के अलग-अलग क्षेत्रों में आयोजित की जानेवाली इस तीन दिवसीय गोष्ठी के सरोकारों ने मुझे आकर्षित किया था अत: मैंने उसके आयोजन की पेशकश कर दी। मगर कहाँ पश्चिम का अहमदाबाद और कहाँ सुदूर पूरब में बसा कुलटी। क्या संजीव आ पाएँगे? प्रकटत: उन्होंने मना नहीं किया था। बस कुछ बंदिशें जरूर प्रकट की थीं कि… उनका संस्थान (इस्को) बंद होने के कगार पर है… मातृत्व के लिए बेटी आ चुकी है… हफ्ते भर की छुट्टियों की किल्लत बहुत अहम हो सकती है। मगर तमाम चट्टानी बंदिशों और दिक्कतों को पार करके, पूरे बावन घंटे की यात्रा के बाद वे गोष्ठी की पूर्वसंध्या तक आ पधारे। पासपोर्ट आकार के जिस धूमिल से फोटो को देख-देखकर मैं न जाने कितनी प्रेरणा ग्रहण करता आया था, आज हाड़-मांस के उसी शख्स की रूबरू मेजबानी करते हुए मैं खुशी से सातवें आसमान पर चढ़े जा रहा था। आयोजन की गहमागहमी के बीच मिले चंद लम्हों में ही अपनी कहानियों पर उनकी बेबाक राय जाननी चाही थी। वे कुछ अनमने-से हुए। कहीं मेहमान होने के कारण डिप्लौमैटिक तो नहीं हो रहे? फिर थोड़ा ठहरकर बोले ‘‘उस रूप में कोई गड़बड़ी नहीं है। अच्छी तरह लिखी गई हैं… बस सरोकारों के संदर्भ और व्यापक करने होंगे…अभी आप क्लैसिक्स को पढ़ो।‘’
बात का खुलासा करने की फुर्सत वहाँ थी नहीं तो उसका मर्म स्वीकारते हुए भी मैं उनकी बात को ज्यादा तवज्जो नहीं दे पाया। मगर कुलटी वापस जाकर उन्होंने पहले ही खत में इसका खुलासा किया तो मेरी समझ में आया कि उन्होंने वह क्यों कहा था। बाद में जब उनकी कहानियों को सिलसिलेवार ढंग से पुन: पढा– जिसमें शामिल थीं– ‘मानपत्र’, ‘प्रेतमुक्ति’, ‘फैसला’, ‘टीस’, ‘अपराध’, ‘लिटरेचर’, ‘सागर-सीमांत’, ‘माँ’, ‘मुर्दगाह’, ‘घर चलो दुलारीबाई’ और ‘दुनिया की सबसे हसीन औरत’ समेत एक से एक अविस्मरणीय कहानियों की फेहरिस्त–तब मुझे शब्दश: अहसास हुआ कि वे क्या और क्यों कर रहे थे। बल्कि यह भी लगा कि अपनी शालीनता के कारण कितना माइल्ड होकर कहा था उन्होंने वह सब।
कथा-रचना की मूल संवेदना में व्यापक सरोकारों की सामाजिक सापेक्षता की जो मिसाल संजीव के लेखन-संसार में है, दूसरे किसी में नहीं। या कम से कम उतनी तिक्तता और कला-कौशल से तो एकदम नहीं। बहुत कम कहानियों में ‘सूक्ष्मता’ ने संजीव को लुभाया है। उनके यहाँ कोई व्यक्ति सामाजिक व्यवस्था की इकाई के रूप में ही उपस्थित होता है। अब जैसे ‘मानपत्र’ को लें। यह संगीत में अधिक मेधावान पत्नी वीणा(आयशा) को पायदान की तरह इस्तेमाल करते-रौदते संगीतज्ञ दीपंकर की ही कहानी नहीं है, यह सामाजिक व्यवस्था के लैंगिक दिवालियेपन पर भी प्रहार करती है। मगर सिर्फ इतना भर ही नहीं है। कहानी के आखिर में वीणा द्वारा अपनी बेटी कला की माँ के रूप में दीपंकर को लिखा पत्र इसे बदलते वक्त ही आहटों से भी जोड़ता चला जाता है… कि जिस पुरुष वर्चस्व तले दबे-कुचले और इस्तेमाल किए जाने को माँ लाचार थी, बेटी नहीं है। जातिवाद के संदर्भ में करीब-करीब वैसा ही प्रहार(सामाजिक) ‘प्रेतमुक्ति’ में किया गया है जहाँ जगेसरा की रूह में बिंधा उसके दमित अभिशप्त मृत पिता का प्रेत मुखिया सुरेंदर की हत्या के बाद कूच कर जाता है। सामाजिक सरोकारों की व्यापकता में रमी संजीव की इसी तरह की दूसरी कहानियों को निष्कर्ष के आधार पर परखना भारी भूल होगी। उनके यहाँ कहानी, कहानी से अपेक्षित तमाम कलात्मक शर्तों के बावजूद, सामाजिक व्यवस्था में एक लेखकीय हस्तक्षेप भी है। वहाँ मुगालते या धुंध की जगह नहीं है। ‘हाय हम दलित क्यों हैं या क्यों नहीं हैं’ का डपोर-शंखी शोर नहीं है। शोषक और शोषित के वाचाल ध्रुवों के बीच पसरा अनगढ़ यथार्थ है। किसी हद तक वैचारिक, नैतिक पक्षधरता भी है। शोषक और शोषित दो व्यक्ति नहीं, दो प्रतिनिधि हैं जिनकी मार्फत कहानी-कला एक सामाजिक अहमियत ले उठती है। कथा-लेखन में इस तरह की वैचारिक समाज-सापेक्षता की बानगी मुझे ‘संगमन’ गोष्ठी के दौरान भी मिली। आयोजन और विमर्श, दोनों ही स्तरों पर गोष्ठी को पर्याप्त सराहा गया था। देश के विभिन्न क्षेत्रों से आए कोई पचास लेखकों ने शिरकत की थी। एक दोपहर खाना खाते हुए हम कुछ लोग संजीव के साथ बतिया रहे थे। उन्होंने कौर चबाते हुए ही दो टूक कहा कि हम लोग इस खाने को थोड़ा डी-क्लास करवाकर आमजन की शिरकत में इजाफा करवाते तो बेहतर होता। खाना उस रूप में साधारण ही था मगर यह सच है कि गांधीनगर के उस सभागार में विशुद्ध पाठक लगभग नदारद थे। मैंने इसके कारणों पर रोशनी डालने की कोशिश की मगर संजीव पर इसका खास असर नहीं पड़ा।
संजीव का कथालेखन अपनी विषयगत जानकारियों के लिए खास जाना जाता है। वे उन लेखकों में नहीं है जो कोरी कल्पना के जादुई घोड़ों पर बेलगाम ऐड़ लगाते रहते हैं। उनकी कोई भी कहानी या उपन्यास, किसी प्रोजेक्ट की गंभीरता से किए गए सिलसिलेवार निरीक्षणों का प्रतिफलन होता है। लेकिन फोकस में कहानी होती है, विषय नहीं। हाँ, उस विषय की व्याकरण को कथा- -सापेक्ष अर्थों में पिरोना उसकी शिल्पगत विशेषता के रूप में उभरता है। ‘टीस’ के लिए साँप-संपेरों के अध्ययन हेतु वे सपेरों के गाँव भी गए। हर दूसरी -तीसरी कहानी में नक्सली संदर्भों की मौजूदगी बहुत कुछ कह देती है। ‘लिटरेचर’ में हमें होम्योपैथी की राह ले जाते हैं। ‘फैसला’ लिखते हुए वे कुरान शरीफ की हदीसों और कोर्ट कचहरियों की सफेद-स्याह जिरहों और फैसलों पर उंगली धरते नजर आते हैं। ‘मानपत्र’ में संगीत और संगीतवाद्यों पर पकड़ दिखती है तो ‘सागर-सीमांत’ में समुद्री-मत्स्य जीवन पर। ‘खोज’ की वंशावली तो लैजेंड्री ही है। उपन्यास ‘जंगल जहाँ शुरु होता है’ के लिए कोई बारह बरस उन्होंने अरण्य-जनजाति जीवन का अध्ययन किया था। अपनी कथा यात्रा के आगाज में लिखी ‘अपराध’ क्रिमनलॉजी तक खूब हिचकोले खाती है। मगर ध्यातव्य हो कि तफसीलों के प्रति उनकी सचेतना किसी आग्रह की तरह न होकर, कथारस का अभिन्न अंग होती है। जानकारियाँ कथा की प्रामाणिकता दर्ज करती हैं न कि लेखक का ज्ञान प्रदर्शन। जाहिर है यह काम बेहद मेहनत मशक्कत का है। मगर संजीव उसके लिए हरदम तत्पर दिखते हैं और किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते हैं। मुझे याद है ‘संगमन’ के गहमागहमी भरे उन दिनों में बाकी सभी लेखक विमर्श के बाद जहाँ कुछ तरोताजा या रिलैक्स होने के मूड में रहते थे वहीं संजीव उस जल सेवा प्रशिक्षण संस्थान के किसी नामालूम कारिंदे से पता नहीं क्या-क्या स्थानीय जानकारी बटोर रहे होते। उनका बहुत मन था कि समीप के कस्बे ‘आनंद’ में अमूल के सहकारिता अभियान की शानो-शौकत से भी वे रूबरू हो जाएँ। मगर हमारी मजबूरी थी। समय के हिसाब मे वह फिट ही नहीं बैठ पाया।
अपने आसपास के प्रति आक्रांतता की हद तक चौकन्नापन, कभी खीझ भी पैदा कर सकता है। हरदम किसी न किसी कहानी की थीम या उससे जुड़ी किसी तफसील में पिले रहना भी क्या जिंदगी हुई! मगर संजीव के साथ ऐसा ही है। चौबिसों घंटे रचनारत लेखक। दो दशकों से ऊपर इसी तरह की प्रक्रिया पेशानी की सलबटों में समा गई है। पूरा व्यक्तित्व जैसे साहित्यिक अथवा व्यावहारिक खिलंदड़ेपन के खिलाफ टीका लगवा चुका हो। थोड़ा डर भी लगता है… कहीं ऐसा न हो कि सामान्य तौर पर पकड़ी जा सकनेवाली चीजें ही हाथ से छूट जाएँ। कहते हैं न्यूटन ने अपने पालतू कुत्ते की माँद में दो द्वार बनाए थे- एक कुत्ते के लिए, दूसरा पिल्ले के लिए। मगर संजीव के संदर्भ में यह आशंका सही नहीं बैठती है। उनकी रचनाओं का फलक इतना विस्तृत और वैविध्यपूर्ण है कि उसके लिए किया गया हर श्रम वाजिब और ‘पैसा वसूल’ लगता है। दूसरे, निजी तौर पर संजीव बहुत किस्सागो चरित्र हैं। ‘भूमिका’ और ‘दुनिया’ की सबसे हसीन औरत’ संग्रह की कहानियों–जैसे ‘शिनाख्त’, ‘नौटंकी’ और दोनों शीर्षक कहानियाँ–में बिना गंभीरता तजे ऐसे लेखक के दर्शन होते हैं जो उसके बाद की कहानियों में रहस्यमय ढंग से गायब ही हो गया। रात को खाने के बाद गांधीनगर के बियाबान में एक रोज सैर करते हुए उन्होंने एक पेशेवर गुंडे से हुई अपनी भिडंत का जो किस्सा सुनाया तो हमारे रोंगटे खड़े हो गए थे।
विज्ञान के विवेक से दीक्षित अधिकांश लोग जिंदगी की ठोकरों के बरक्स एक से एक अजीबो-गरीब वहमों का शिकार हो जाते हैं। ‘वास्तु’ का एक फड़कते हुए कारोबार’ के रूप में उभरना इसी प्रवृत्ति का एक पहलू है। मगर मैडम क्यूरी को अपना एक प्रेरणाबिन्दु मानने वाले संजीव के पास लेखकीय निगाह के साथ-साथ दुरुस्त विवेक भी सक्रिय रहता है और जिसके अंतरविरोधों को जिंदगी के पक्ष में रखकर सुलझा लेते हैं (जैसे, ‘अपराध’ में किया)। लेकिन गौतम सान्याल को दिए गए एक साक्षात्कार में उनकी टिप्पणी ‘‘पहले जीवन की आँख से कहानी आँकता था अब कहानी की आँख से जीवन को आँकता हूँ’’ कई अर्थों में मायने रखती है। यह लेखक की कलात्मकता के प्रति उत्तरोत्तर बढ़ती चाहत भी है और समाज-व्यवस्था में एक लेखक द्वारा अपनी सीमित भूमिका की स्वीकारोक्ति भी। लेखकीय निगाह के भीतर पसरी ‘वैज्ञानिक’ नजर के कारण ही वे ‘काउंटडाऊन’ जैसी कहानियाँ लिख लेते हैं। संभवत: इसी के कारण स्पष्टत: वाम विचारधारा से प्रेरित होते हुए भी नैतिकवादी विमर्श उनकी कहानियों में नहीं मिलता है। बल्कि यही उन्हें उस रूप में वाम विरोधी ‘अवसाद’ जैसी उम्दा कहानी लिखने का हौसला देता है।
क्या संजीव कोई जीनियस हैं? उनके व्यक्तित्व की भलमनसाहत, सादगी और सौहार्द के मुताल्लिक तो यकीनन नहीं। रचनाएँ न पढ़ी हो तो उनकी मौजूदगी अनचीह्नी ही चली जाए। उनकी लिखावट में दूर-दूर तक वह अपेक्षित अभिजात्य नहीं है जो अमूमन महान शख्सियतों में गोचर होता है। मगर बात यदि लेखक कथाकार संजीव की करनी हो तो बेशक वे जीनियस हैं। अध्ययन का फलक, जिंदगी के प्रति रागात्मकता, सोच की गहराई और इस सबको एक मुकम्मल कथाकृति में पिरोती चलती निगाह–और कला– का शिल्पी कोई जीनियस ही हो सकता है। फ्रांसीसी लेखक आंद्रे मौरिस ने कहा भी है कि बिना मेहनत के मेधा फिजूल है। कहानी के क्षेत्र में संजीव को मैं विश्व के सर्वकालिक महानतम कथाकारों में गिनता हूँ। हर महान् कथाकार अपने समय का प्रतिनिधित्व करते हुए भी अंतत: उसका अतिक्रमण करता है। अपने जीवन संघर्षों, लेखकीय एकनिष्ठा और अवदान में संजीव मुझे एक साथ गोर्की और चेखव की याद दिलाते हैं। उनकी नक्सलवादी-वामवादी सोच के प्रति झुकाव के पीछे जिंदगी के हर मोड़ पर तंग-अकिंचन हालात का भोगा हुआ यथार्थ कम जिम्मेदार नहीं है। गोर्की के बचपन और युवाकाल की घोर विपन्नता उन्हें चाहे बर्दाश्त करनी नहीं पड़ी हो लेकिन इतनी चादर उन्हें कभी मुहैया नहीं हुई कि खुलकर ओढ़-बिछा सकें। ‘‘नियति न जाने क्यों पागल कुतिया-सी मेरे पीछे पड़ी रहती है… मुख्तसर में बस इतना ही कि मैंने न्यूनतम सुविधा और शांति चाही थी, नहीं मिली। न्यूनतम सुरक्षा माँगी थी, नहीं मिली। न्यूनतम ‘समय’ माँगा था, नहीं मयस्सर हुआ’’। ‘मैं और मेरा समय’ में अभिव्यक्त उनकी यह टीस बहुत भीतर से आई और गहरे तक असर करती है। लेकिन मनोबल और मनीषा में वे गोर्की जितने ही पुख्ता दिखते हैं। किसी लेखक की असलियत का गवाह यूँ तो उसका लेखन ही होता है मगर जिंदगी से मुठभेड़ करते वक्त उसका रवैया, वैचारिक पक्षधरता का ज्यादा बड़ा सबूत होता है। दो संगमन गोष्ठियों में उनकी उपस्थिति का मैं गवाह रहा हूँ। वे हर सत्र के हर वक्ता को उसी तन्मयता से सुनते हैं जैसे मुख्य वक्ता को। खान-पान और पहनावे में उनसे ज्यादा सादगीपसंद लेखक कम ही मिलेंगे। मेल-मिलापे के लिए आप उन्हें उनके कमरे पर कभी भी पकड़ सकते हैं। वे आपकी समस्याओं को उसी बाल-सुलभ जिज्ञासा से सुनेंगे मानो वे समस्याएँ आपकी नहीं उनकी हैं। कभी एक सतही, पारदर्शी हँसी बिखेरते तो दिख जाएँ मगर ठहाके मारते कभी नहीं। जीवन का एक जरूरी मूल्य–हास्य-विनोद–उनकी रचनाओं में लगभग नदारद है तो इसीलिए कि लेखन उनके लिए, जिंदगी की तरह एक गंभीर पेशा है। वे आपको कुछ पढ़ने की हिदायत तो दे सकते हैं मगर किसी या खास तरह से लिखने की अनुशंसा करते कभी नहीं मिलेंगे। अपने लेखक की आलोचना का स्पष्टीकरण-सा कुछ करेंगे, प्रतिकार-प्रतिवाद नहीं…लेखकी के दूसरे छोर पर तैनात राजेंद्र यादव से इस मायने में कितने अलग। संजीव के मात्रात्मक और गुणात्मक कथा साहित्य और कला-कौशल को देखकर चेखव के बारे में कही एक उक्ति याद आती है कि…वे किसी भी विषय पर कहानी लिख सकते हैं। लेकिन कहना होगा कि कथानक में गूँथे यथार्थ को जिस गहराई, विश्वसनीयता और नजरिये से वे पकड़ते हैं वह खासा मुश्किल काम होता है। उनकी हर नई कहानी पढ़ने से पहले एक फुरफुरी उठती है कि इस बार उनके बस्ते से क्या निकलेगा। कहानी को लेकर इन दिनों तकरीबन प्रायोजित ढंग से फैलायी जा रही तमाम वैचारिक धुंध की, उनकी आनेवाली अमुमन हर कहानी अपने अंतरिक आलोक से एक मार्ग-सा प्रशस्त कर जाती है। इसकी ताजा मिसाल उनकी इधर प्रकाशित ‘डेढ़ सौ सालों की तनहाई’ है जिसमें ‘सूक्ष्म’ के माध्यम से ‘व्यष्टि’ के शक्तिमान स्वरुप और उससे जुड़े मिथक को एक मूलभूत किस्म की इंसानी चेतना पर रखकर परखा गया है। ताकतवर समाज और व्यवस्था की समष्टिगत जड़ता, निरंकुशता के बरक्स व्यक्ति का लाचार हैसियत के आख्यान में एक मानवीय किरिच भी जगा देना संजीव की कहानी कला का ऐसा अवयव है जो कमोबेश बदले हुए अर्थ-रूपों में अधिसंख्य कहानियों में गोचर होता है। इस अर्थ में स्वातंत्र्योत्तर हिंदी कहानी की नये सिरे से परख करने के लिए यह कहानी एक प्रस्थान बिंदु हो सकती है। समकालीन हिंदी कहानी का कोई भी आकलन संजीव के उल्लेख के बगैर पूरा नहीं माना जा सकता है। हालाँकि विमर्श के लिए मशक्कत से जुआई जानेवाली धूमधड़ाकेदार सामग्री उनके रचना-संसार से सिरे से अनुपस्थित है। फिर भी, दिल्ली विश्वविद्वालय में दस-पंद्रह बरस से अधिक समय से फिलहाल हिंदी पढ़ाते, दर्जनों पी.एच.डी. और सैकड़ों एम.फिल. कराने का दम भरनेवाले उस ‘आलोचक’ मित्र के सवाल में छुपी ‘हकीकत’ का खुलासा करने से नहीं रोक पा रहा हूँ जो मेरे संग्रह की ब्लर्ब के नीचे लिखे नाम को देखकर नितांत ईमानदारी से मुझ तक संप्रेषित हो गई थी… ‘‘यह संजीव कौन हुए… पूरा नाम क्या है?’’ याने हिंदी के सर्वश्रेष्ठ लेखक को हिंदी जगत में यह पहचान दी जा सकती है, कसूरवार हालाँकि दोनों में से कोई नहीं।
मुझे यकीन है कि एक अरसे बाद आनेवाली पीढ़ी के लेखकों को मैं बता सकूँगा कि संजीव से मेरी मित्रता थी। कुछ खतों-किताबत भी रही और, वक्त के चंगुल में फँसे इस अमर कथाकार शख्स से मैं रूबरू मिला था।
Namste sir.