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अर्थ का अप्रतिम महाविद्यालय

May 08, 2016 ~ Leave a Comment ~ Written by Oma Sharma

देश की अन्‍य महत्‍वपूर्ण संस्‍थाओं की तरह पिछले महीने दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के दिल्‍ली स्‍कूल ऑफ इकोनॉमिक्‍स यानी डी-स्‍कूल ने भी अपनी स्‍वर्णजयंती मनाई। दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के भूगोल पर इसकी पहचान करवाना चाहे तकलीफ भरा काम हो (हिंदू कालेज के बाद, रामजस से पहले, किरोड़ीमल के सामने) लेकिन अंतरराष्‍ट्रीय अर्थ जगत में डी-स्‍कूल ने एक बेहद सम्‍मानजनक और सक्षम साख बनाई है। कम ही संस्‍थानों को ऐसा गर्व हासिल है। यहां के पढ़े छात्र और छात्राएं यूरोप और अमेरिका के कई विश्‍वविद्यालायों और शोध संस्‍थानों को अलंकृत करते मिल जाएंगे। अपने देश में तो कोई मंत्रालय या वित्‍त संस्‍थान या सिविल सर्विस ऐसी नहीं होगी जहां डी-स्‍कूल की बाकायदा मौजूदगी न हो। योजना आयोग या उद्योग-वित्‍त मंत्रालय अपने आर्थिक चरित्र के कारण डी-स्‍कूल का विस्‍तार लगते हैं। पिछले वर्ष जब अमर्त्‍य सेन को नोबेल पुरस्‍कार से नवाजा गया तो सारा देश खुशी से भौंचक था। लेकिन डी-स्‍कूल वालों को सिर्फ खुशी थी, आश्‍चर्य कतई नहीं था क्‍योंकि यह बात बहुत दिनों से चल रही थी कि एक न एक दिन तो अमर्त्‍य सेन इस सम्‍मान को पाएंगे। और सेन कोई अकेले या आखिरी अर्थशास्‍त्री नहीं हैं, कम से कम एक और डी-स्‍कूली, प्रो. जगदीश भगवती भी इससे कम सम्‍मान के हकदार नहीं हैं। सेन की तर्ज पर यह देर आयद-दुरुस्‍त आयद ही होगा।

 

और इसे क्‍या खूबसूरत इत्‍तफाक मानें कि प्रो. भगवती के अभिभाषण से प्रारंभ हुए स्‍वर्णजयंती समारोह का उत्‍कर्ष पिछले महीने अमर्त्‍य सेन के भाषण के रूप में संपन्‍न हुआ। उनके भाषण के केंद्र में था कि चीन के अनुभवों से भारत क्‍या ग्रहण कर सकता है। दरअसल अमर्त्‍य सेन डी-स्‍कूल के ऐसे हीरे रहे हैं जो अपनी प्रतिभा, गरिमा, अनुभव और आभिजात्‍य से हमेशा भीड़ बटोरते रहे हैं। आज का अर्थशास्‍त्र (कम से कम डी-स्‍कूली ओर अंतरराष्‍ट्रीय) उस रूप में इतिहास या राजनीति शास्‍त्र की तरह नहीं रह गया है कि कक्षा में गए, सुन लिया और काम खत्‍म। आज यह भौतिकी, सांख्यिकी या गणित की तरह ही सुगठित बन चुका है। अमर्त्‍य सेन की खूबी इसी में है कि तमाम गणितीय बवालों को वे ऐसे काव्‍यात्‍मक फलसफे की सरहद पर ले जाते हैं जहां से ‘अर्थ’ बिना अनर्थ हुए नए अर्थ लेने लगता है। यही कारण है कि उन्‍हें सिर्फ देखने और सुनने के लिए बेहिसाब ‘बुद्धिजीवी जनता’ एकत्र हो जाती है। सेन वस्‍तुत: क्‍या कहते हैं, यह ज्‍यादातर के पल्‍ले नहीं पड़ता(होगा) फिर भी लोग उन्‍हें सुन-देखकर गौरवान्वित महसूस करते रहे हैं। नोबेल पुरस्‍कार ने इस प्रवृत्ति में और भी दो ईंटें लगा दी हैं। अमर्त्‍य सेन को सुनने आई भीड़, प्रशंसकों जैसी ही लगती है और सेन कोई समकालीन शीर्ष अभिनेता लगते हैं जिसके ऑटोग्राफों की मार अलविदा करती कार के स्‍टार्ट होने तक लगी रहती है।

 

जिस ‘स्‍कूल’ में प्रवेश के लिए देश के तमाम शीर्ष विद्यार्थी प्रतिस्‍पर्धा से गुजरकर आते हों, जाहिर है उसके खान-पान और सोच-विचार में पर्याप्‍त वैविध्‍य  होगा। डी-स्‍कूल की तारीफ करनी होगी कि उसने कभी अपने विद्यार्थियों को किसी खास वैचारिक रुझान की तरफ परोक्ष रूप में भी अग्रसर या प्रेरित नहीं किया। इसकी चारदीवारी में हमेशा दो-चार झोले-चप्‍पलधारी भी रहे तो जींस-टीशर्ट डाले छात्र भी। कोई वैचारिक प्रतिबद्धता इसके वजूद पर चस्‍पां हो ही नहीं पाई। इसके अभाव में एक तरफ जहां चीजों को अधिक वस्‍तुनिष्‍ठ होकर जांचने-परखने के प्रशिक्षण में मदद मिलती है वहीं यह भी लगता है कि जीवन और दुनिया का अर्थशास्‍त्र महज समीकरणों और कागजी दरो-दीवार (मॉडल्‍स) के आधार पर नहीं समझा जा सकता। विश्‍व-बैंक और अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष के अकादमिक उद्देश्‍यों और अध्‍ययनों पर नजर डालने से ये संस्‍थाएं स्‍वर्ग से उतरी अप्‍सराएं लगती हैं। इनमें कहीं भी कुछ भी खोट नहीं। और अधिसंख्‍य डी-स्‍कूली ऐसा सोचने में कुछ भी नाजायज नहीं मानते हैं, हालांकि इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि इस उत्‍तर-आधुनिक विश्‍व में जहां पूंजी, शक्ति का सर्वनाम हो चुकी है, इन संस्‍थाओं को बहु-मोतियाबिंद ने जकड़ लिया है। एकध्रुवीय विश्‍व या तो जंगल का क़ानून मानता है या मछलियों का।

खैर, अमर्त्‍य सेन के भाषण के बाद जलपान पर एक पुराने डी-स्‍कूली मित्र को देखकर चौंक गया। यदि उसी ने पहल करके मुलाकात न की होती तो मैं उसे अजनबी समझकर अनदेखा कर देता। पहले कहां बेतरतीब बढ़ी दाढ़ी और अब एकदम क्‍लीन शेव्‍ड। कहां पहले के झोला-चप्‍पल और अब कहां चमकीले जूते और हथेलियों में इतराता सेल फोन। पूछने पर बताया कि आजकल एक कंप्‍यूटर कंपनी खोलकर जगह-जगह परामर्शदाता हो रहे हैं। हाल ही में आयकर विभाग के ‘पैन’ आवंटित करने का ठेका पूरा किया है। और भी कई समानांतर कार्य चल रहे हैं। ‘मगर कामरेड, तुम्‍हारे मार्क्‍स और क्रांति का क्‍या हुआ?’ मैंने चुटकी लेकर पूछा। ‘मार्क्‍स है अभी। अंदर कहीं। लेकिन क्रांति तो इसने (मोबाइल फोन को इंगित करके) कर रखी है।‘ उसने स्‍वीकारा।

और मुझे लगा कि इतना उदारमना कोई डी-स्‍कूली ही हो सकता था।

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Oma sharma, born 1963, is a noted Hindi writer. He has published eight books that include three collections of short stories, namely ‘ Bhavishyadrista’(भविष्यदृष्टा ), ‘Karobaar’(कारोबार) and Dushman Memna(दुश्मन मेमना). Besides, he is widely known in India for re-igniting the interest of all and sundry in the works of noted Austrian legend Stefan Zweig. He has translated the autobiography of Stefan Zweig `The world of yesterday` in Hindi titled ‘Vo Gujra Zamaana’(वो गुजरा जमाना ) as also selected stories of the master in his स्टीफन स्वाइग की कालजयी कहानियाँ(Classic stories of Stefan Zweig) . Adab Se Muthbhed, (अदब से मुठभेड़) his book by way of literary encounters with Legends like Rajendra yadav, Mannoo Bhandari, Priyamvad, Shiv murti and M F Husain has been hugely appreciated for its critical probing.

He has published his travel diaries titled ‘Antaryatrayen :Via Vienna’( अन्तरयात्राएं: वाया वियना ) which records a long, never before attempted kind of essay about Stefan Zweig, Vienna and the cultural aspect of Austria. He is recipient of the prestigious Vijay Verma Katha Sammaan (2006), Spandan Award(2012) and Ramakant Smriti Award(2012) for his short stories.

संपर्क: A-1205, Hubtown Sunstone, Opp MIG cricket club, Bandra east. Mumbai 400051
ईमेल: omasharma40[at]gmail[dot]com

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