विनिमय, व्यापार और संप्रेषण के चलते अपनी चीजों में दूसरों का असर आना या उसकी प्रतीति होना स्वाभाविक है। लेकिन जिस आक्रामकता और भयावहता से पश्चिम ,जिसका प्रतिनिधि रूपक अमेरिका है, एक आरोपित और दूसरी सभ्यता के प्रतीक के रूप में हमारे दैनंदिन में प्रवेश कर गया है, वह चौंकाता कम, सालता अधिक है।
अपने मनोरंजन जगत को ही लें। यहां इन दिनों कुछ महत्त्वपूर्ण घराने ही नहीं दो प्रमुख चैनलों के मध्य अपनी तरह की प्रतिस्पर्धा है। बहुत गौर से देखने की जरूरत नहीं है कि पूरी प्रक्रिया किस कदर अमेरिकी मनोरंजन उद्योग से मारी गई है। अलग-अलग श्रेणियों में किए जाने वाले नामांकन, गालों से गाल सटाकर लिए-दिए जाने वाले चुंबन और पुरस्कार प्राप्तकर्ताओं की बयानबाजी, सभी कुछ उसी तर्ज पर होता है जैसे ऑस्कर या ग्रैमी इनामों के वक्त किया जाता है। और तो और, पुरस्कारों के अंतराल में किए जाने वाले जादू-टोने और वर्जिशी समूह नाच भी उसी तर्ज पर फिट किए गए होते हैं। हमारे पहरावे में हो रहे परिवर्तन भी साफ लक्षित हो रहे हैं। टीका-टीक दुपहरी में मामूली किस्म के कंपनी प्रतिनिधि टाई या कोट में कसे हुए मिल जाएंगे। और इसे जामा पहनाया जाता है ‘एक्जीक्यूटिव’ वर्ग से संबद्ध होने का। अधिकतर टीवी चैनलों पर समाचारों की प्रस्तुति बीबीसी की तर्ज पर होती ही है। समाचार यदि महिला पढ़ रही है तो उसका सलवार सूट, साड़ी या इसी तरह के अपने लिबास में होना मुश्किल है। वह एक बनियान जैसी चीज के ऊपर एक दुरुस्त कोट ढांपे होगी क्योंकि बीबीसी वाले ऐसा ही करते हैं। हम यह नहीं सोचते कि कोट पहनना बीबीसी वालों की जरूरत हो सकती है, जो जरूरी नहीं कि हमारी भी बने। मगर नहीं। लेकिन कोट पहनना वातावरणजनित आवश्यकता नहीं है। वह अब संस्कृति का प्रतिनिधित्व करने लगा है। सारे विश्व को जब से गांव का दर्जा दे दिया गया है तो हम विश्व को कतई यह गुमान नहीं कराना चाहते कि हम गंवई हैं या हमारी कोई अपनी स्थानीयता हो सकती है। यह मान लिया गया है कि मानकीकरण हो जाना चाहिए। और यदि ऐसा है तो हम तो महा मानकीकरण कर डालेंगे। अलबत्ता यह सवाल उठाना ही कुफ्र है कि आखिर जब यह विश्व एक गांव बन ही गया है तो सारे मानक ‘परले मोहल्ले’ के लोग ही क्यों तय कर रहे हैं या हम उन्हें यह छूट क्यों दिए जा रहे हैं कि वे हमारे भी मानक तय करें?
दिल्ली में ऐसे परिवारों की संख्या कम नहीं है जहां व्यक्तिगत और सामाजिक अभिनंदन के समय ‘नमस्कार’ कहना ‘फनी’ माना जाता है। ससुराल से बेटी मायके आए तो पिता को सिर्फ ‘हाय डैड’ कहकर आधुनिक समझती है। ‘नमस्ते’ कहने का अभिप्राय है यूपी या बिहार का होना। जानते नहीं, दोनों प्रदेश ही पिछड़े और पिछड़ेपन के प्रतीक हैं। इन संदर्भों का मतलब यह कतई नहीं है कि पश्चिम या अमेरिका की तमाम चीजें महत्त्वहीन फिजूल या मूल्यहीन हैं। संस्कृति के स्तर पर अमेरिका निश्चित तौर पर एक विकल्प हमारे समक्ष प्रस्तुत करता है जिसमें अमुक चीजें अपने माहौल के अनुरूप चयन करने का विवेक हममें होना चाहिए। पश्चिमी समाजों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता, संरचनात्मक खुलापन और सामाजिक परिणामों के बरक्स व्यक्तिगत चेतना की जवाबदेही जैसी कुछ बातें हैं जो जीवन के स्तर पर निस्संदेह एक बेहतर और प्रगतिशील समाज में नई जान फूंकने का दमखम रखती हैं। यही कारक सामंतवादी ही नहीं, पूंजीवादी व्यवस्था के भी दुर्दम स्तंभों में सेंध मारने का काम करते हैं। लेकिन किसी शेर के पदचिन्हों को समेटकर हम सोचने लगते हैं, हमने शेर फतह कर लिया।
हमारी आबादी का 70-80 फीसदी भाग गांव में रहता है। राष्ट्रीय आय में ग्रामीण क्षेत्र आधे के करीब हिस्सा रखता है। तो भी क्या हुआ? एक समाज के स्तर पर हम हरगिज उन चीजों का प्रतिनिधित्व नहीं करना चाहते हैं जो हम हैं। खान-पान में मक्का या बाजरे की रोटी, खेलकूद में गेंदतड़ी या कबड्डी और रहन-पहन में खादी या सूती वस्त्र- हमें मूलतः सभी अस्वीकार हैं। हां, यदि यही सब हमें किसी ‘एथनिक’ लेबल में लपेटकर किसी आभिजात्य वर्ग के फैशनेबल संरक्षण की कृपावश परोसे जाएं तो क्या कहने। हमारी भारतीयता कुलांचे भरने लगती है। पिछले दिनों क्लिंटन महोदय ने तो अमेरिका के भारत आने की महज औपचारिकता पूरी की थी वरना बहुत बड़े शहरी मध्यवर्ग की धड़कन में अमेरिका कब से रमा हुआ है। भला हो कोलंबस का जिसने ढूंढ लिया अमेरिका को, नहीं तो क्या होता हमारा। यही सवाल थोड़े सीधे स्वर में जब अपने बगीचे में खेल रहे चार-पांच स्कूली बच्चों के समूह से पूछा तो बेहद सुखद आश्चर्य से उत्तर मिला, ‘बस हमें पीजा ही तो खाने को नहीं मिलते’
और मैं सचमुच आश्वस्त हो उठा कि कम से कम कुछ कम जानकार लोगों की निगाह में अमेरिका गब्बर सिंह नहीं है।
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