स्विटजरलैंड की चर्चा हमारे यहाँ कई सन्दर्भों में होती है। स्विस बैंकों का जिक्र जन्तर-मन्तर से लेकर संसद तक बरसों से ही भारतीय राजनेताओं-कारोबारियों-नौकरशाहों के काले धन की शरणस्थली के रूप में होता रहा है। प्राकृतिक-वैभव के स्तर पर कुछ जानकार काश्मीर को भारत का स्विटजरलैंड कह देते हैं। स्विस घड़ियाँ और चॉकलेट्स भी खूब मशहूर हैं। इधर के दशकों में आई कुछ बम्बइया फिल्मों ने स्विटजरलैंड के पर्यटकीय सौन्दर्य को भारतीय जनमानस के बीच यूँ सुलभ कर दिया है कि वह अपने कुल्लू-मनाली जैसे घरेलू हिल-स्टेशनों का विस्तार सा लगता है। बहरहाल, स्विटजरलैंड की शौहरत इतनी और ऐसी है कि आपके पास यूरोप में किसी एक जगह जाने का प्रस्ताव हो तो इटली, फ्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड और मिस्र की पुरातन-ऐतिहासिक-कलागत सशक्त दावेदारी के बावजूद स्विटजरलैंड को चयनित करने में किसी को हिचक नहीं होगी। और वाकई, जिनेवा की जमीन पर कदम रखने से पूर्व ही हम उसके आकर्षण में बंधने लगे थे। यह मई का महीना था। हमारे यहां गर्मी की क्रूरता इसी महीने ज्यादा असहनीय हो उठती है जबकि स्विटजरलैंड के पहाड़ों पर आच्छादित बर्फ इसी समय पिघलने लगती है जिससे वहां की सर्दी सहनीय और सुहावनी हो जाती है। जिनेवा एयरपोर्ट की हवाई पट्टी की तरफ क्रमश: उतरते विमान से नीचे का वह अलसाया सफेद सौन्दर्य इसी कारण अपने विस्तार से नैसर्गिक खिंचाव जगाने लगा था।
स्कूल के दिनों से ही हम जिनेवा को अनेक कारणों से जानते आए हैं जिसमें प्रमुख है यहां यूनेस्को और विश्व स्वास्थ्य संगठन जैसी संस्थाओं के मुख्यालयों का होना। ऐसी दो सौ संस्थाओं के मुख्यालय जिनेवा में बताए जाते हैं। जेहन में यह बात भरी थी तो जिनेवा शहर के विस्तार और भीड़-भाड़ के बारे में मन कयास लगाने लगा। लेकिन उसके एयरपोर्ट पर उतरते ही एहसास हो गया कि यह तो अलग ही दुनिया है। अपने यहां तीसरे पायदान पर विराजमान नागपुर जोधपुर या गोहाटी भी ज्यादा भीड़ भरे हैं। यहां तो भीड़ जैसा कुछ भी नहीं और होगा भी क्यों जब शहर की कुल आबादी सत्रह लाख है। इमिग्रेशन की औपचारिकताएं पूरी होते ही एयरपोर्ट का लाउंज अपनी कर्फ्यूनुमा मुद्रा में लौट गया तो हम अपने पहले पड़ाव यानी मोन्त्रो (जिसे ज्यादातर भारतीय मोन्ट्रेक्स कहते हैं) जाने के लिए एयरपोर्ट के निकास द्वार पर आ गए। स्विटरजरलैंड के सभी एयरपोर्ट रेलमार्ग से जुड़े हैं। रेल यहां के यातायात का प्रमुख साधन है जो अमरीकी यातायात व्यवस्था के एकदम उलट है। अमरीका में ज्यादातर लोग या तो अपनी कारों में चलते हैं या हवाई जहाज से(निजी आजादी के इस मूल्य को अमरीकी ऑटो कम्पनियों ने बड़े कारोबारी तरीके से भुनाया है)। स्विस-पास एक ऐसी सहूलियत है जिसकी बिना पर आप यहां रेल, बस या मोटरबोट किसी पर मनमाफिक सवारी कर सकते हैं। स्विस-पास का मूल्य रोजाना या प्रवास अवधि के मुताबिक तय होता है जिसे स्विस एजेन्सियों से भारत में भी खरीदा जा सकता है। हमने यही किया था इसलिए जिनेवा एयरपोर्ट के निकास द्वार से जुड़े रेलवे स्टेशन पर आ गए और मोन्त्रो जाने वाली ट्रेन में बैठ गए।
जिनेवा से कोई डेढ़ सौ किलोमीटर दूर है मोन्त्रो लेकिन समय के लिहाज से फकत पौने दो घन्टे दूर। और उस पर स्विस रेलें? मानो पूरे देश में दिल्ली मेट्रो बिछी है। भीड़ जैसी चिड़िया जो अपने यहाँ हरदम और हर जगह आजिज किए रहती है, यहां पर भी नहीं मारती दिखती है इसलिए आप गंतव्य तक यात्रा का आनन्द उठाते हुए जा सकते हैं। बल्कि लगता है स्विटरजरलैंड में रेल से यात्रा करना अपने आप में पर्यटकीय प्रयोजन है…अत्याधुनिक साफ-शफ्फाक कोच, हर प्लेटफार्म पर एलिवेटर, स्वचालित दरवाजे… रास्ते की गैलरी के दोनों तरफ आमने-सामने दो-दो व्यक्तियों के लिए सोफेनुमा सीटें इस मिजाज से लगी हैं कि लगे आप घर की बैठक में आ बैठे हैं। दोनों तरफ खिड़कियों के शीशे जानबूझकर विशालकाय बनाए गए हैं ताकि रास्ते के विपुल प्राकृतिक सौन्दर्य की अनदेखी न हो। टिकट कन्डक्टर जब मुआइना करने आया तो लग रहा था कि वह अपनी नौकरी का फ़र्ज अदा करने नहीं, अपने मुल्क के पर्यटक-प्रेमी होने के खजाने में अपनी तरफ से कुछ इजाफा करने आया है। टिकटों को झूठ-मूठ को देखते हुए ही वह कयास लगाकर पूछता है कि क्या हम ‘इंडिया’ से आए हैं? इंडिया में कहां से? मुम्बई, ओके…बॉलीवुड…अभी कहाँ-कहाँ घूम चुके हैं? कब तक रहेंगे। आगे कहां जाने का इरादा है। छोटी बेटी की तरफ एक वात्सल्य मुस्कान बिखेरता है और शुभकामनाएं देता हुआ आगे बढ़ जाता है।
जिनेवा से बाहर निकलते ही एक तरफ जिनेवा झील का विस्तार शुरू हो गया। यह झील दुनिया की सबसे बड़ी और लम्बी झीलों में गिनी जाती है और मोन्त्रो तक साथ चलती है। मुझे अचानक स्टीफन स्वाइग की कहानी ‘भगोड़ा’ याद हो आयी जिसे बरसों पहले मैंने झीलों के अपने शहर भोपाल से निकलने वाली एक पत्रिका ‘अक्षरा’ के लिए अनुदित किया था। विश्वयुद्ध (प्रथम) की फिजूलियत तले एक सामान्य नागरिक (अनिवार्य सैनिक सेवा के चलते जिसे किसी अन्जान मुल्क के खिलाफ लड़ने भेज दिया जाता है) को टिपाई मर्मांतक लाचारी को रेखांकित करती कहानी का ‘बोरिस’ इसी झील के किनारे दम तोड़ता है। पाउलो कोल्हो का ‘इलेवन मिनट्स’ भी जिनेवा में घटित होता है लेकिन उसमें जिनेवा का राग-रंग कहीं नहीं आया है। अपने ज्यादातर लोभहर्षक उपन्यासों की तर्ज पर नायिका मारिया के बहाने यहां भी लेखक जीवन, प्यार और अध्यात्म की ऐसी लुगदी तैयार करता है कि क्षोभ होता है। कैसे-कैसे उम्दा लेखक और उनकी नायाब कृतियां अंधेरे में धूल खा रही हैं और इधर…। लेखकी का एक मजेदार पक्ष यह भी तो है यह भी अच्छे-खराब से नहीं, मांग-आपूर्ति की शक्तियों से संचालित होती है। विदेशी लोमहर्षक लेखकों में इरविंग वालेस इकलौता होगा जो गम्भीर और लोकप्रिय साहित्य के दोनों छोरों को समान प्रवीणता से संभाल ले जाता प्रतीत होता है हालांकि गम्भीर साहित्य वाले इसे मानने से परहेज करेंगे।
भारतीय पर्यटकों के लिए मोन्त्रो बहुत परिचित या पोपूलर स्थल नहीं है लेकिन छुट्टियाँ बिताने का अपने आप में यह आदर्श हो सकता है – छोटा, सुविधा-सम्पन्न, शान्त और प्राकृतिक सौन्दर्य से सराबोर, बर्फ ढके पहाड़ों के पैताने बैठी जिनेवा झील के दूसरे छोर पर बसा हुआ। मुम्बई की तरह एक रैखिक–बमुश्किल पांच किलोमीटर फैला–और आबादी महज बीस-बाइस हजार। झील के साथ लगे प्रोमिना (यानी अपना माल रोड) पर जीवन की उपस्थिति और उत्साह दिखते हैं लेकिन एक वीरानापन (या एकान्त !) हर तरफ पसरा ही होता है। रेल के जिस डिब्बे में हम थे वह पूरे वक्त दो-तिहाई खाली रहा लेकिन इस बिना पर ट्रेनों की न आवृति कम की जाएगी न आकार। जिस रेस्त्रां में हमने पहले रोज खाना खाया उसमें हमारे अलावा सिर्फ एक दम्पत्ति और थी लेकिन इससे वहां परोसे जाने वाले शाकाहारी एवं मांसाहारी सलादों और व्यंजनों के वैविध्य (स्प्रैड) पर असर नहीं पड़ेगा। दिन चाहे रात के साढ़े-नौ बजे मुंदता हो (निकलता वही छ्ह बजे है) मगर ज्यादातर लोगों और सेवाओं के कार्य करने के घन्टे तय हैं। यानी सुबह दस-ग्यारह बजे खोले गए रेस्त्रां में भी सात बजे के बाद कुर्सियों को मनाही स्वरूप आढ़ा कर दिया जाएगा। सबके अपने ठीये-ठिकाने और घर-परिवार हैं जिनकी अपनी अहमियत है। प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से (सत्तर हजार डॉलर) स्विटरजरलैंड दुनिया के सबसे अमीर देशों में गिना जाता है लेकिन जीवन में लोगों के संतोष और संतुष्टि के नजरिए से यह दुनिया में अव्वल आता है। यानी दौलत होने के बावजूद उसे ‘और’ हासिल करने की पूंजीवादी हवस यहां के लोगों में नहीं है। शायद इसीलिए यहां के औसत आदमी की उम्र अस्सी बरस से भी ज्यादा है। अभी ब्राजील के रियो शहर में जलवायु पर हुए अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन की रिपोर्टिंग के सन्दर्भ में मैंने जाना कि पर्यावरण के हिसाब से स्विटरजरलैंड दुनिया का उत्कृष्ठतम देश है। यूरोप-अमरीका के होटलों में बाथरूम की टोंटी से आने वाला पानी आमतौर पर पीने योग्य होता है मगर स्विटरजरलैंड में तो झील का पानी पीने योग्य घोषित है। आंकडों के अनुसार बारिश और बर्फ यहां के बासिन्दों की जरूरत से बीस गुना ज्यादा पानी मुहैया करा देते हैं। मोन्त्रो की पचास फीसदी जमीन पर जंगल हैं, पच्चीस फीसदी पर कृषि होती है और बाकी पर घर-होटल या उद्योग चलते हैं। मेरा मन हो आया कि वहां के खेतिहर जीवन से साबका हो जाये और पता लगाऊं कि वहां के किसान की दिनचर्या, रवैया और आकांक्षाएं क्या हैं। परिवार के साथ जाने पर इस तरह की गुंजाइश नामुमकिन हो जाती है। दूसरे, कुल श्रमशक्ति का फकत चार प्रतिशत भाग ही कृषि में कार्यरत होने से यह समझा जा सकता है कि वहां के किसान का जीवन एक औसत भारतीय किसान के जीवन से कितना भिन्न और बेहतर होगा। थोड़ी आंखिन देखी और थोड़ी तहकीकात से यह तो फिर भी ज्ञात हो जाता है कि पूरे स्विटजरलैंड में गांव-शहर के विभाजन जैसा ज्यादा कुछ नहीं है। शहरों में बड़े-बड़े और खुले-खुले घर हैं तो तथाकथित गांव में बाकायदा हर वह सुविधा-सहूलियत है जो किसी शहर में।फिर शहर भी कैसे होंगे जब पूरे मुल्क की आबादी सिर्फ अठहत्तर लाख है (जिसमें सत्रह लाख विदेशी हैं)। राजधानी बर्न कुल बारह लाख की बस्ती है। पांच-छह शहरों को जाने दें तो बाकी सब नामचीन पर्यटकीय आकर्षण पचास हजार की आबादी के पेटे में रहेंगे, जैसे स्विस रिवेरा (कुलीनों की बस्ती) के अन्तर्गत आने वाला मोन्त्रो है। लेकिन ऐसे सभी कस्बे-शहर मुख्य मार्गों से जुड़े हैं। रेल या जन-परिवहन की बसें यहाँ के यातायात की रीढ़ हैं। अपने मुल्क में निजी वाहनों में घूमने-फिरने के अभ्यस्त भारतीयों को भी इसमें जरा असुविधा नहीं होती है। यहां बसें लम्बी और रेलें छोटी होती हैं और बिजली से चलती हैं। सब की आवृत्तियां और आने-जाने का समय तय है। किसी आंधी-तूफान या असामान्य कारण से इसमें कुछ आगा-पीछा हो जाए तो हो जाए वर्ना एक मिनट की भी हेर-फेर नहीं होगी। हर बस-स्टैंड पर बना इलैक्ट्रॉनिक बोर्ड वहां से अगले आधे घन्टे में गुजरने वानी बसों की प्रतिक्षावधि दिखाता रहता है। बस स्टैण्ड पर ही स्वचालित टिकट कि किओस्क बने हैं जिनमें क्रेडिट कार्ड और नकद दोनों की सुविधा है। बस आपको सिर्फ लेने ले-जाने के लिए है, उसमें सिर्फ चालक होगा, कण्डकटर नहीं। आपको अगले किसी स्टॉप पर उतरना है तो सहारे के लिए जगह-जगह बने खंबों में लगे बटन को दबा दीजिए, यही घन्टी की मार्फत चालक को बस रोकने का आदेश होगा। किसी स्टॉप पर विकलांग सवारी को चढ़ना- उतरना है तो उसे बाइज्जत सहारा देने की जिम्मेदारी चालक वहन करता है। यह कोई संयोग नहीं है। पूरे यूरोप और अमरीका में विकलाँगों को एक सामाजिक मूल्य के स्तर पर खास मित्रवत निगाह से देखा जाता है। हर दुकान-बाजार या पार्किंग में उनके लिए विशेष इन्तजाम रहते हैं ताकि उन्हें लाचार या दोयम जैसा कुछ न लगे।
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अंग्रेजी में प्रयुक्त ‘कासल’ शब्द का हिन्दी में क्या समकक्ष हो सकता है? गढ़, किला या महल? मगर सांस्कृतिक स्तर पर ये तीनों ही ‘कासल’ से इतर पड़ते हैं। कुछ रियासतों में नवाबों द्वारा बनाई–अब लुप्तप्राय– ‘गढ़ी’रौब-रुतबे में शायद इसके निकटतम पड़े। स्विटजरलैंड में कई स्थलों पर कासल बने हुए हैं…गुए, ग्रांडसन, थुन, मोंविलो, मुनोट वगैरा वगैरा । ज्यादातर चार सौ-पाँच सौ वर्ष पुराने हैं और किसी पहाड़ी या झील के किनारे बने हैं। बहुर भव्य न होते हुए भी अपने भीतर अपने अस्तित्व का इतिहास समेटे हुए…चारों तरफ से घिरी तीन-चार मंजिला इमारत अपने दरवाजों, दीवारों, सीढ़ियों, छतों आतिशखानों और वास्तु स्वरूप में अतीत की अनकही दास्तानें समेटे हुए हैं। इनकी बुनियाद आड़े वक्त सुरक्षा प्रदान करने की नीयत से ही रखी गयी होगी लेकिन कुछ को छोड़कर सभी खास किस्म के कैदियों-विद्रोहियों की बामशक्कत करने के काम आती थीं। स्विटजरलैंड की सबसे मशहूर कासल–शीयोह–मोन्त्रो में ही मानी जाती है,शायद इसलिए कि यह सबसे पुरानी होगी— कोई आठ सौ साल पहले बनी। कवि बायरन ने इसके ऊपर सन 1816 में कोई चार सौ पंक्तियों की ‘प्रिजनर ऑफ शीयोह’ नामक कविता लिखकर तो जैसे इसे अमरत्व ही प्रदान कर दिया। चित्रकार विलियम टर्नर और गुस्तव कोर्बेट ने इसको अपने अपने केनवास पर उतारा तो वहीं रूसो और ड्यूमा ने इस पर अपनी कलम चलाई है। स्विटजरलैंड की दूसरी किसी ऐतिहासिक यादगार की तुलना में शियोह की गढ़ी सबसे ज्यादा पर्यटकों को आकर्षित करती बताई जाती है। मोन्त्रो की झील के सहारे एक-डेढ़ किलोमीटर चलती सड़क-पट्टी जैसे इस कस्बे में आने का हासिल है। सामने रंग बिरंगी बेंचें लगी हैं जिन पर बैठकर आप सामने पसरे बर्फ-आच्छादित चमकते पहाड़ों में मन भरमा लें, बीयर या और कुछ पीने का मन है तो झील के सहारे बने नीम-सुनसान पड़े रेस्त्राओं को आबाद कर दें या फिर शिराओं की तह को सहलाती सर्द शुद्ध वायु का प्रचुर सेवन करते हुए जगह के वातावरण की इन्तिहा पर मन ही मन फिदा होते रहें। और ध्यान रहे, यह सब नजारा या व्यवस्था सदियों पुरानी है। इसी कारण कभी चार्ली चैप्लिन ने इसे अपनी आरामगाह बनाया था। यहीं पर उन्होंने अपनी आत्मकथा लिखी थी। चैप्लिन का स्मारक मोन्त्रो के जुड़वां कस्बे वेवी में है। लेकिन मोन्त्रो की झील के किनारे टहलते हुए एक कद्दावर बुत से आपका मुकाबला जरूर होगा…मंच पर गीत-प्रस्तुति देता, दर्शकों के भीतर अपने जज्बे और जोश से जान फूंकने की अदा में हवा में उर्ध्वाधर लहराते एक हाथ की संगति से गायन पर एकाग्र करता अश्वेत युवक…। यह फ्रेडी मर्करी है। रॉक संगीत का अपने समय का बेहद लोकप्रिय और चर्चित स्टार-गायक। वह ‘क्वीन’ नामक बैंड से सम्बध्द था जिसके एलबम दुनिया भर में लाखों बिकते थे (हैं)।एक समय उसकी लोकप्रियता ऐसी थी कि ‘टाइम’ पत्रिका ने उसे ब्रिटेन के सौ सबसे ताकतवर व्यक्तियों में शामिल किया था। फ्रेडी को मोन्त्रो बहुत पसन्द था। ‘‘ आपको सुकून चाहिए तो मोन्त्रो आओ’’ वह कहता था। मोन्त्रो जैसे कस्बे की खूबी यह भी है कि यहां बड़े से बड़ा सेलिब्रिटी आम आदमी की तरह घूम फिर और रह सकता है। अपने बैंड की दुनिया भर में होने वाली नशीली प्रस्तुतियों से थक-हारकर फ्रेडी यहीं आकर आराम और अगली एलबमों के गीत तैयार करता था। मोन्त्रों का यह सपूत सन 1991 में मात्र पैंतालीस वर्ष की उम्र में एड्स का शिकार हो गया। वह समलिंगी था जो उसके बैंड के ‘क्वीन’ से भी संकेत देता है । एड्स जैसी बीमारी के ऊपर दुनिया का ध्यान उसकी मृत्यु के कारण यकीनन और केन्द्रित हुआ। सन 1996 से मोन्त्रो का शासन सितम्बर के पहले सप्ताह में उसकी स्मृति मनाता है। मुझे बाद में पता चला कि फ्रेडी मर्करी का भारत से गहरा ताल्लुक था। उसकी पैदाइश भले तंजानिया में हुई हो मगर उसके पारसी मां-बाप गुजरात के वलसाड जिले के रहने वाले थे। फ्रेडी का बचपन का नाम था फारूख बलसारा। पता नहीं वह अपनी जड़ों का दौरा करने भारत आया था या नहीं लेकिन यह देखकर अच्छा लगा कि संगीत की चाहत के चलते किसी जगह के लोग एक परदेशी कलाकार को अपने खून की तरह ही चाहते और याद करते हैं।
राष्ट्रीयता के हर चालू और संकीर्ण ढर्रे से परे हटकर सोचना और देखना दरअसल स्विटजरलैंड की खास पहचान भी रही है। यह निर्विवाद रूप से दुनिया का सबसे गैर-राजनैतिक देश है। पहले और दूसरे विश्वयुद्धों के दौरान–और उसके बाद भी –जब छोटी-बड़ी हर किस्म की राष्ट्रीयता आत्मरक्षा या सुरक्षावश किसी न किसी खेमे में मोर्चाबन्द थी, स्विटजरलैंड किसी में शामिल नहीं हुआ। ‘‘दूसरों के फटे में अपनी टांग मत डालो’’ पंद्रहवीं सदी के सन्त निकोलस फ्लू का यह फलसफा सन 1815 से ही स्विस जीवन और राजनीति का प्रेरक रहा है। सन 1945 में जब संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई तो उसके अनेक मुख्यालय यहीं पर स्थापित किए गए क्योंकि जिन महत्तर उद्देश्यों की खातिर संयुक्त राष्ट्र की नींव रखी गयी थी उन्हें यह मुल्क पहले से ही साधे हुए था( जबकि वह उसका सदस्य नहीं था)। अपने-अपने मुल्कों की सत्ताओं के सताए लेखक-कलाकारों को स्विटजरलैंड ने हमेशा खुले दिल से पनाह दी है। स्वाइग के नाटक ‘येरेमिहा’ की पहली प्रस्तुति सन 1917 में ज्यूरिख में ही हुई थी। अपनी आत्मकथा में उसने लिखा भी है…उस प्रदेश के प्रवास में मुझे हर बार ही लुत्फ आता था…छोटे से रकबे में कितना भव्य मगर फिर भी कितने अकूत वैविध्य से अटा हुआ…यह स्विटजरलैंड में ही मुमकिन था कि अलग-अलग मुल्क बेअदावत एक जगह मिल बैठें और भाषाई-राष्ट्रीय मत-मतांतरों को आपसी सम्मान और नेकनीयत लोकतन्त्र की मार्फत बिरादरानेपन में बदल दें। पूरे गमज़दा यूरोप के लिए क्या खूब मिसाल ! शान्ति और स्वतन्त्रता का सदियों पुराना यह बसेरा मजलूमों की पनाह था। अपने वजूद की खूबी को बखूबी बरकरार रखते हुए भी यह हर तरह के विचार के स्वागत में उमड़ता था…यहां कोई अजनबी नहीं था…। यह वही समय था जब एक बीहड़ आयरिश लेखक जेम्स जॉयस स्विटजरलैंड में घुमक्कड़ी करते हुए ‘यूलीसिस’ जैसी कृति को अंजाम दे रहा था तो लोजान जैसे कस्बे में ईलियट ‘वेस्टलैंड’ को।
राजनैतिक निरपेक्षता से स्विटजरलैंड की विदेश नीति ही नहीं जन जीवन भी संचालित होता है। स्विस राष्ट्र की स्थापना सन 1848 में हुई थी और तब से ही इसके राजनैतिक-समाजिक स्वरूप में विशेष परिवर्तन नहीं आया है। कुल तेईस राज्यों (केंटन) का संघ है स्विटजरलैंड। सभी राज्य पर्याप्त स्वायत्त ढंग से कार्य करते हैं। चार राष्ट्रीय पार्टियां केन्द्र सरकार के सात प्रतिनिधि चुनती हैं जो मिलकर केन्द्रीय मंत्रीमंडल बनाते हैं। यानी केन्द्रीय सरकार में विपक्ष जैसा कुछ नहीं है क्योंकि पार्टी के स्तर पर सभी सरकार के अंग हैं। किसी एक पार्टी के प्रस्ताव पर सभी बहस-मुबाहिसा करते हैं और लोकतांत्रिक ढंग से उसे खारिज या पारित करते हैं। प्रस्ताव खारिज होने की स्थिति में अपने यहां की तरह सरकार के ऊपर संकट नहीं आ जाता है। स्विटजरलैंड के लोकतंत्र की बड़ी विशेषता है यहां के लोगों की उसमें सतत भागेदारी। यहां का लोकतंत्र आमजन को हर चार साल बाद वोट डालने वाली मशीन के रूप में नहीं देखता है। आमजन मानो हर समय एक मजबूत निगहबान के रूप में मुस्तैद रहता है। पारित किए जाने वाले बहुत से कानूनों में जनमत करना लाजमी होता है। पचास हजार लोग ह्स्ताक्षर करके संसद द्वारा पारित किसी भी प्रस्तावित कानून को चुनौती दे सकते हैं ; एक लाख लोगों के हस्ताक्षर के बाद तो किसी भी नए मसले पर जनमत जरूरी हो जाएगा। अपने यहां अन्ना टीम के लोग इसी नजीर को अपने यहां रोपना चाहते हैं जो सोच के स्तर पर सही है मगर यह किसी विशाल मशीन में एक पुर्जा बदलने जैसा होगा। एक दिलचस्प बात यह भी है कि स्विटजरलैंड की राजनैतिक व्यवस्था में पूर्णकालिक राजनेता लगभग नहीं होते हैं। ज्यादातर राजनेता कारोबारी या किसी और काम-धन्धे या पेशे से जुड़े हुनरमंद बा-रोजगार होते हैं। यानी वे जो जीविका के लिए राजनीति का ‘धन्धा’ नहीं करते हैं। एक और गौरतलब बात यह है कि सांसदों को मिलने वाला भत्ता उनके द्वारा संसद में गुजारे वक्त पर निर्भर करता है। उनकी तनख्वाह और भत्तों को बढ़ाने की मांग वहां भी जब-तब आयी है लेकिन जनमत द्वारा मंजूरी न मिल पाने के कारण उसे कामयाबी नहीं मिली है (क्या आपको अपनी संसद का इस मामले में सत्र के आखिरी पलों में बिना किसी बहस के सर्वसम्मति से सांसदों के भत्तों में तीन गुना बढोत्तरी करने का रवैया याद आया)। राजनैतिक प्रतिनिधियों को अर्थलाभ या अर्थ से जुड़े मुद्दों पर मनमानी करने की बहुत कम गुंजाइश रहती है। नेता और आमजन के बीच फांक या फासला-सा रहता ही नहीं है। किसी नेता को आप पहचानते हों तो हो सकता है वह बिना किसी सुरक्षाई ताम-झाम के अपने ‘पैट’ के साथ सुबह की सैर करता या नुक्कड़ के ‘कूप’ (वहां सर्वत्र फैली परचूरन सामान की दुकान) स्टोर में फल-भाजी खरीदता दिख जाए। राजनीति और लोकतंत्र का ऐसा सपाट और सादगी भरा रूप किसी के भीतर आहें भर सकता है। यह अकारण नहीं है कि प्रति व्यक्ति आय के लिहाज से विश्व के दस समृद्धतम देशों में शामिल होते हुए भी आय की असमानताएं स्विटजरलैंड में सबसे कम हैं जो इस बात से भी जाहिर है कि विश्व के सबसे अमीर खरबपतियों (बिलियनेएर्स) में स्विटजरलैंड का एक भी व्यक्ति नहीं है जबकि भारत जैसे अपेक्षाकृत गरीब देश (जिसकी अमीर देशों में कहीं कोई गिनती नहीं है) के कम से कम तीन व्यक्ति बड़े ताब से हरदम उस सूचि में बने रहते हैं।
क्या राज है स्विटजरलैंड की ऐसी स्वप्निल तरक्की का? पहाड़, बर्फ और झीलों की अकूत सम्पदा जरूर इसके पास है लेकिन क्या ये ऐसी मोहक और स्पृहणीय खुशहाली के कारक हो सकते हैं? यह सच है कि अपने प्राकृतिक, सामाजिक और राजनैतिक वातावरण के चलते दुनिया भर के करोड़ों पर्यटक यहां आते हैं जिससे कई खरब स्विस फ्रैंक का सीधा ही नहीं, होटल, एयरलाइन्स, ट्रैन और मनोरंजन जैसे उद्योगों को काफी सहारा मिलता है। लेकिन गौर से देखने-समझने पर लगता है कि यहां की खुशहाली और चौतरफा संतुलन के पीछे डेढ़ सदी से ज्यादा की राजनैतिक स्थिरता और आला दर्जे की राजनैतिक तटस्थता ही नहीं, बल्कि आर्थिक, सामाजिक और लोकतांत्रिक शक्तियों का ऐसा सोचा-समझा मॉडल कार्यरत है जो विकास के किसी साम्यवादी मॉडल के लिए तो कल्पनातीत होगा ही, पूंजीवादी मॉडल के लिए किसी दिवास्वप्न से कम नहीं होगा। स्विटजरलैंड में जरा भी खनिज संसाधन नहीं है जो आमतौर पर किसी भी उद्योग की धुरी होते हैं। लेकिन इसी प्रतिकूलन को वहां का अर्थतन्त्र अपने पक्ष में इस्तेमाल करता है(सिंगापुर और दुबई भी अपनी तरह से करते हैं)। स्विटजरलैंड ने ऐसे गुणकारी उद्योगों को अपनाया है जहां आयतित खनिजों से कई गुना मूल्य की निर्यात की जाने वाली चीजें बनाई जाती हैं। मसलन घड़ी को गुणवत्ता का पर्याय बनाने का श्रेय सिर्फ स्विटजरलैंड को जाता है। दुनिया में सबसे ज्यादा बिकने वाली ‘स्वाच’ नामक घड़ी ही नहीं, राडो, रोलेक्स, ओमेगा, पटेक फिलिप, जीटन, टैग, टिसो, रोमा गोथ और बोम एण्ड मर्सीअर समेत और भी कई हाई-एण्ड ब्रांड्स हैं जो दुनिया में अपनी गुणवन्ता, विश्वसनीयता और समयबद्धता पर शत-प्रतिशत खरा उतरने के लिए ख्यात हैं। पूरे विश्व में बनने वाली घड़ियों का पचास फीसदी उत्पादन इस नन्हे से मुल्क में होता है। उत्पादन की गयी घड़ियों का पिचानवें प्रतिशत निर्यात हो जाता है। अमूमन यही हालत कंप्यूटर के साथ इस्तेमाल होने वाले ‘माउस’ की है। दुनिया के हर तीसरे कंप्यूटर के साथी ‘माउस’ का निर्माता (लॉजीटैक) स्विटजरलैंड है। यही हाल बाल पैन के ‘पॉइंट’ का है। स्विटजरलैंड में उत्पादन की जाने वाली चीजों की खास बात यह भी है कि यह छोटी या मझली इकाईयों द्वारा होता है। यानी उत्पादन करने वाले निनयानवें प्रतिशत इंडस्ट्रीज में ढाई सौ या उससे कम पूर्णकालिक मजदूर होते हैं। रसायनों पर आधारित एक भी उद्योग यहां नहीं है जबकि विश्व की एक बड़ी फार्मा कम्पनी(नोवार्टिस) स्विस है। मेरे मन में सवाल आया कि जिस मुल्क में हर वर्ष करोड़ों पर्यटक आते हों, वहां झीलों का पानी पेय कैसे रह सकता है? लेकिन यहां पर ऐसा इसलिए है कि आधुनिक तकनीकी के सहारे मल-निर्यास की ऐसी व्यापक व्यवस्था है कि वह उत्पादन, पर्यटन या इनसे जुड़े किसी व्युत्पन्न को प्रकृति प्रदन्त संसाधनों के साथ छेड़खानी नहीं करने देती है। और यह एक ऐतिहासिक तथ्य है जो लोगों के समष्टिगत मूल्यबोध से उपजा है।
स्विस बैंकों की जग-जाहिर प्रणाली ने भी देश की खुशहाली में बड़ा योगदान दिया है। यूबीसी और क्रेडिट-स्विस यहां के दो बड़े बैंक हैं तो ज्यूरिख, जिनेवा और लुगानो प्रमुख वित्तीय केंद्र। अपने गैर-राजनैतिक और निरपेक्ष स्वरूप तथा आचारण में ईमानदारी की पराकाष्ठा के चलते दुनिया के हर मुल्क का धन यहां के बैंकों को मुहैया रहता है जिसमें बहुत सा अवैध भी होता है। इस व्यवस्था को यहां के बैंकिंग कानूनों ने और दृढ़ता प्रदान की है। स्विस जन-मानस में चूंकि किसी राजनैतिक विचारधारा का रंग शामिल नहीं रहता है इसलिए तन्त्र में मुद्रा का भी रंग शुमार में नहीं आता है। जहां से आए, जितना आए, मुद्रा तो मुद्रा है। दूसरों का अवैध धन चूंकि ब्याज रहित मिल जाता है इसलिए उससे आमदनी और ज्यादा होती है। सन 1995 में यहूदी लोगों द्वारा कोहराम मचाने पर स्विस बैंकों ने स्वीकारा कि उनके पास सन 1945 के पहले के बहुत सारे सुप्त खाते हैं जो हो सकता है नाजियों द्वारा हत्या कर दिए यहूदियों के रहे हों। इसे एक स्विस खूबी ही कहा जाएगा कि उजागर किए जाने पर इन बैंकों ने होलोकास्ट पीड़ितों के परिजनों को खरबों का मुआवजा दिया(कहने वाले अलबत्ता कहते हैं कि यह ऊँट के मुँह में जीरे जैसा था)। इसी के चलते सन 2004 में स्विस बैंक कानून में यह तब्दीली लायी गयी कि खातों को सनाम रखना होगा। अरसे तक ये सिर्फ संख्या से चलते थे ताकि जमाकर्ता की पहचान गुप्त रहे। इसी के चलते उम्मीद है कि भारत सरकार भारतीयों के उस बेहिसाबी काले धन (जिसका अनुमान सैकड़ों खरबों में कूता जाता है) को अपनी जब्त में कर सकेगी जो हमारे लोगों ने अवैध तरीकों से कमाकर-हड़पकर यहां की तिजोरियों में रख छोडा़ है। स्विस बैंकों के ग्लोबल आकार में वह रकम ऊँट के मुंह में जीरा (आधा प्रतिशत) सरीखी हो मगर भारतीय अर्थतन्त्र और राजतन्त्र में अपेक्षित सुधारों को यह करिश्माई धक्का लगा सकती है, यह हर आम भारतीय सोचता है। हम भारतीय पता नहीं इतने गहरे आस्थावादी क्यों हैं जो बार-बार लुढ़कने-ठोकर खाने के बाद भी किसी नामुमकिन करिश्मे के होने में अपनी तमाम सामाजिक व्याधियों-परेशानियों का बीमा होता देखते रहते हैं जबकि निजी स्तर पर उसके निदान के लिए कुछ करना तो दूर, यह भरम भी नहीं पालते हैं कि बूंद-बूंद से ही समुद्र बनता है जो यदि नहीं भी बने तो अपने प्रयास की सत्यनिष्ठा की आँच में एक दिली तसल्ली का बायस तो बना ही देता है ! लेखक, पत्रकार, अध्यापक, समाज सेवी, न्यायधीशों – सभी के आचरण में तो वह घुन लगा है तो नौकरशाह, कारोबारी और राजनेताओं की तिकड़ी की फसाद की जड़ ठहराना और उसी में मुक्ति की संभावना एकाग्र करना कहां तक वाजिब है?
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भारत जैसे मुल्क से इतने सारे लोग स्विटजरलैंड घूमने क्यों जाते हैं? गर्मी और उमस भरे माहौल से निकलकर सर्दी और प्रकृति के आगोश में निजात पाने, यह महसूस करने कि हाड़-मास के लोगों से ही बना कोई तन्त्र कितनी मानवीय गरिमा के साथ तरक्की कर सकता है, राजनीति और विचारधारा की फिजूलियत की अहसास करने…या…इसी तरह के मिले-जुले दूसरे जायज कारण। ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’तथा दूसरी कई बम्बइया फिल्मों के बाद से इन्टरलाकन, जुंगफ्राउ (यंगफ्राउ…कमसिन!), टिटलिस और ग्लेशियर-3000 भारतीय उपमहाद्वीप से आने वाले हर सैलानी की प्राथमिकता में शामिल रहते हैं। और सचमुच इनके सुरम्य जलवों से बावस्ता होने पर इनकी शौहरत का राज मालूम हो जाता है। मई का अतिरिक्त लाभ यह भी है कि इन दिनों स्विटजरलैंड भारतमय हो रहा होता है। टूर ऑपरेटरों की मेहरबानी कोने-कोने से सैकड़ों भारतीय सैलानियों को यहां पहुंचा देती है- ज्यादातर अपनी चीख-चिचियाहट के साथ लेकिन सभी अपेक्षित मस्ती के आलम को अपने तईं जीने की तत्पर। मेजबान भी उनकी मिजाज- पुर्सी करने में पीछे नहीं रहता है…कई जगह सूचनापटों पर हिन्दी जड़ी होगी तो कुछ जरूरी पड़ावों पर बाकायदा भारतीय व्यंजनों की आवभगत दिल खुश करने को मुस्तैद।
ग्लेशियर-3000 पर जाने के लिए स्ताद स्टेशन के सामने गली के नुक्कड़ पर यहूदी मेनुहिन की उक्ति ने बरबस मेरा ध्यान खींचा… ‘‘वह जीवन जिसमें अज्ञात या रहस्यमय के लिए जगह नहीं है कभी पूरा जीने लायक नहीं हो सकता है’’ मेनुहिन इस कस्बे में जिसकी आबादी आज भी ढाई हजार से ज्यादा नहीं है अक्सर समय बिताते थे। यहूदी मेनुहिन के माता-पिता अमरीका में बसे विस्थापित रूसी यहूदी थे। गौरतलब हो कि मेनुहिन को बीसवीं सदी का सबसे बड़ा वायलिन वादक माना जाता है। उन्होंने ही आयंगर की योग शिक्षा से पश्चिम का परिचय करवाया था और उन्होंने ही पंडित रविशंकर की जुगलबन्दी में ‘वैस्ट मीट्स ईस्ट’ जैसी नायाब एलबम सन 1966 में निकाली थी। उनके नाम को लेकर एक रोचक वाकया हाथ लगा। जब वे गर्भ में थे तब उनके मां-बाप रहने के लिए भाड़े का घर तलाश रहे थे। एक मकान जो जंचा उसका सब कुछ तय हो जाने के बाद मेनुहिन उपनाम से अन्जान उस मकान मालकिन ने एहतियातन कहा कि वह यहूदियों को मकान नहीं देती है। बस, यहूदी स्वाभिमान से भरी मां ने तय कर लिया कि अपने होने वाले बच्चे का नाम वह ऐसा रखेगी कि किसी को शक की गुंजाइश ही न रहे। इस तरह जन्म के बाद गर्भस्त बच्चे का नाम यहूदी हो गया।
खैर, केबल-कार पकड़कर हम बर्फ से पूरी तरह आच्छादित उस पहाड़ के शिखर पर जा लगे जो इतनी देर से हमारे भीतर पुचकार मचा रहा था। वहां के पूरे इंतजाम में इतनी योजनाबद्धता है कि बर्फ के समुन्दर में उन सरकने-फिसलने वाली ट्यूब्स पर गोते खा-खाकर एक तरफ पूरे प्रयोजन की सार्थकता महसूस होती है तो ‘अपने यहां ऐसा कुछ क्यों नहीं है’ वाला आदिम सवाल और तल्खी से सालने लगता है। हिमाचल प्रदेश के रोहतांग पास पर एक बार मित्रों के साथ जाना हुआ था। मनाली से निकलते ही चढ़ाई भर वह सड़क इतनी तंग और टूटी बनी रही कि लगातार ईश्वर को याद करना लाजमी हो गया। बीच रास्ते में मिले ट्रेफिक जाम ने धड़कनें और बढ़ा दीं…पहुंच भी पाएंगे, पहुंच गए तो लौटेंगे कब? खुदा-खुदा करके जब बर्फ के पास पहुंचे तो सब कुछ इतना बिखरा-बिखरा और साधारण। घोड़ों की लीद से जनी गंध पूरे माहौल पर कब्जा किए पसरी थी। खाने-पीने के नाम पर कुछ पटरी-ठेले वाले थे जो वहां व्यवसाय नहीं दोहन करने को जमे थे जबकि यहां की हर चीज अमन-चैन और पर्यटकीय चयन का हिस्सा थी। मैं सोच भी नहीं सकता था कि बर्फ के बीच आँखे ऐसे चौंधिया सकती हैं कि काला चश्मा पहनना अनिवार्य हो जाए। केबल-कार से नीचे उतरते हुए हमारे समूह में कोलकाता से पधारे मारवाड़ियों की बहुतायत थी। भारतीय मानकों पर तन्दुरूस्त दिखती महिलाओं ने दुनिया की इकलौती रिवोलविंग केबल-कार के प्रति सरासर बदगुमानी दिखाते हुए ‘जेहि बिधि रखे राम तेहि बिधि रहिए, राधे-श्याम राधे-श्याम राधे-श्याम भजिए’ का वृंदगान उठा लिया। राम और श्याम की अटपटी संगत को साथ चल रहे दूसरे भारतीय पर्यटकों की तालियों ने और तूल दे दी तो उस दूरस्थ शीतप्रदेश में उस मुखड़े ने कदाचित राष्ट्रीय गान की सी एकता और उल्लास संचरित कर दिया। भौंचक खड़े जापानी सैलानियों ने जानना चाहा कि यह क्या गाया जा रहा है…कोलावरी दी जैसा कुछ या…। एक सदस्य ने टूटे-फूटे अनुवाद में उसके मायने बताए तो उन्हें कुछ भी सारगर्भित नहीं लगा। सच भी है, मस्ती का मायने से कितना क्षीण रिश्ता होता है। फिल्मी गीतों की धुनों पर श्रद्धास्वरूप शेराँवाली की भेंटें गायी जा सकती हैं तो भजनों की मार्फत मस्ती क्यों नहीं की जा सकती है?
हमारा अन्तिम पड़ाव लूसर्न था जहां चैपल ब्रिज के पास रहने का ठिकाना था। रीयस नदी पर बना यह दुनिया का सबसे लम्बा और लकड़ी का ढका हुआ सबसे पुराना पुल है। इसे चौदहवीं सदी में बनवाया गया था। सन 1614 के आसपास इसमें त्रिकोणाकार पेन्टिंग्स लगा दी गयीं जिनमें मुल्क के इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएं दर्ज हैं। सन 1993 में इस पुल में जबरदस्त आग लग गयी थी। लकड़ी के पुल को तो खैर नया रूप दे दिया गया मगर कई पेन्टिंग्स हमेशा के लिए नष्ट हो गयीं। वह आग और उससे हुआ नुकसान भी अब इस पुल के इतिहास का हिस्सा है। आग से जलकर नष्ट हुई पेन्टिंग्स के तिकोने क्षेत्र को आज भी खाली छोड़ा हुआ है।
लूसर्न स्टेशन के बाहर पार्क की गई साईकिलों के झुंड ने मेरा ध्यान आकर्षित किया। यहां बच्चे-बड़े सभी साईकिलों से खूब आते-जाते हैं। दूसरी किसी जगह साईकिल का इतना चलन मुझे नहीं दिखा। यह यहां के लोगों की पर्यावरण चेतना का एक और प्रमाण है। जन-परिवहन की बसें और रेलें तो बिजली से चलती ही हैं जो पन-बिजली पर आधारित हैं। साईकिल नागरीय प्रशासन में कितनी आदरणीय है यह इस बात से जान सकते हैं कि मुख्य सड़क की तीन फुट चौड़ी पट्टी साईकिल सवारों के लिए आरक्षित रहती है जिसे गेरूए से रंग से चिन्हित किया होता है। क्या अजीब देश है जिसने ग्लोबलाइजेशन की तमाम अफवाहों के बीच जीने-रहने और खाने-कमाने की तमाम आचार संहिता अपनी जरूरतों और मूल्यों के मद्देनजर बना रखी है न कि अमरीका से प्रेरित या घबराकर। इस बात का इससे पुख्ता सबूत और क्या होगा कि पूरे प्रवास में मुझे कहीं कोई मॉल या मल्टीप्लैक्स नजर नहीं आया। अलावा इसके कम से कम कामकाजी जीवन में तो अंग्रेजी का जरा भी दबदबा नहीं दिखा। ऑस्ट्रिया, इटली, फ्रांस और जर्मनी से घिरा होने के कारण स्विटजरलैंड में जर्मन, फ्रैंच और इतालवी का ही बोलबाला रहता है। फ्रांस के सीमावर्ती इलाकों में फ्रैंच अधिक चलती है तो जर्मनी से सटे इलाकों में जर्मन। आमजीवन में कोई भाषाई तुष्टिकरण काम नहीं करता है। इतनी विविध राष्ट्रीयताओं के पर्यटकों की आवाजाही के बावजूद कोई अपने भाषाई संस्कारों का संप्रेषण की सहूलियत के बरक्स भी अंग्रेजीकरण नहीं करता दिखता है। मोन्त्रो रेलवे स्टेशन के लिए फैंच का सिर्फ GARE था तो लूसर्न में जर्मन BAHNHAUF था। मुझे मुम्बई के चर्चगेट स्टेशन की नाम पट्टी याद आयी जो अपनी न्यायपरकता में क्या खूब भाषाई मजाक है। वहाँ ‘चर्चगेट’ दो बार लिखा है। आपसे ताकीद की जाती है कि एक को आप हिन्दी की आँख से पढ़ें और दूसरे को मराठी से, भले देवनागरी में वे हूबहू हों !
ऐसे साफ-सुथरे, उन्नत गैर-राजनैतिक, शान्तिप्रिय और प्रगतिशील समाज में कला की जरूरत और हैसियत क्या हो सकती है? जहाँ बेरोजगारी फकत एक प्रतिशत हो (और सामाजिक सुरक्षा योजना के चलते जो अपने नख-दंत गंवा चुकी हो, भिखारी जैसा शब्द जहां परिवेश से गायब हो चुका हो क्योंकि वे सब स्ट्रीट-आर्टिस्ट के रूप में किसी चौराहे या सब-वे में स्टैच्यू बनकर या किसी वाद्ययंत्र से मनोरंजन करके ही अतिरिक्त आय ‘अर्जित’ करते हैं), आर्थिक विकास का क्षेत्रीय एवं अन्तरक्षेत्रीय संतुलन सधा हुआ हो और भौगोलिक-सामाजिक पर्यावरण किसी सभ्यतागत हासिल की तरह विराजमान हो, जहां दुख-दर्द, संघर्ष-शोषण, जात-पाँत, रंगभेद या लैंगिक झमेले हैरत करने की हद तक नदारद हों…वहां किसी लेखक-कलाकार की प्रेरणाएं और बेचैनियां कैसी उड़ान भरती होंगी? यह भी प्रश्न उठता है कि कलाकृतियों का सृजन महत्वपूर्ण है या उन विषम मानवीय स्थितियों का तिरोहित होना जिनकी उपस्थिति से एक लेखक के भीतर ऐसे कलागत आवेश उत्पन्न होते हैं जो रचना में रूपांतरित हो जाने के बाद,भाषा और अन्तरनिहित संवेदनाओं के माध्यम से उन विषमताओं पर कुठाराघात करते हैं? यह सत्य है कि किसी भी समाज में सम्पूर्ण बराबरी कभी नहीं आ सकती है लेकिन यदि विषमताएं मानवीय गरिमा के साथ तारतम्य बिठा चुकी हों या मोटे तौर पर स्वीकृत हों, या राज्य की प्रतिकारी कार्रवाई के कारण अधिक सहनीय-पचनीय हो गयी हों, तब? इसी तरह यह माना जाता है कि सत्ता मूलत: क्रूर एवं निरंकुश होती है और रचना के माध्यम से कलाकार इसी क्रूरता और निरंकुशपने का प्रतिपक्ष रचता है। लेकिन एक अभिनव राजनैतिक विन्यास में सत्ता के भीतर से यदि उसका यही सर्वग्राही दंश भौंथरा हो चुका हो तो रचे जाने की क्या सार्थकता-वैधता हो सकती है। उन्नीसवीं सदी में रचा महान रूसी साहित्य या विश्वयुद्ध की विभीषिका को उजागर करती दूसरी महान यूरोपीय रचनाएं अन्तत: उस ‘यथार्थ’ के ‘चित्रण’ स्वरूप ही तो शाश्वत हो सकीं जो अपने नग्न स्वरूप में घिनोना, जटिल और घोर अमानवीय था। अपनी एक कहानी ‘टोनियो क्रूगर’ में टामस मान ने कहा भी है कि पूरी तरह से स्वस्थ और सामान्य व्यक्ति को कुछ भी लिखने रचने की जरूरत नहीं है। वह समाज जो कला के इस कच्चे माल से अमूमन मुक्त या अछूता हो, उसे किसी महान कृति के न होने का गिला क्यों कर हो? यही कारण है कि स्विटजरलैंड के पास इतना कुछ है मगर महान-कालजयी साहित्य लगभग नहीं है। जीवन की चौतरफा संगति ने महान कला के अभाव को भरपूर क्षतिपूर्ति कर दी है। या हो सकता है अभी स्विस साहित्य के बारे में मुझे बहुत कुछ पढ़ना-जानना बाकी हो जिसके लिए वहां फिर से जाना बनता है!
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